शाहपुर का तम्बाकू (खैनी) आज भी पूरे बिहार में प्रसिद्ध है। अंग्रेजों के जमाने में यहाँ पर पैदा हुई खैनी के कारण मुंगेर में तम्बाकू-सिगरेट की फ़ैक्टरी लगाई गई जो 1920 के दशक आते आते दुनियाँ की सबसे बड़ी तम्बाकू फ़ैक्टरी के रूप में प्रसिद्ध हो गई। इस दौरान इस फ़ैक्टरी में एक वर्ष में औसतन दो करोड़ सिगरेट का उत्पादन होता था जिसे देश और दुनियाँ के विभिन्न हिस्सों में निर्यात किया जाता था।
मुंगेर सिगरेट फ़ैक्टरी:
19वीं सदी के अंत होते होते भारत में बढ़ते मध्यवर्ग और पश्चमी शिक्षा-संस्कृति के प्रचार के साथ सिगरेट पीने का भी प्रचलन बढ़ने लगा था। वर्ष 1910 में बिहार के मुंगेर में हिंदुस्तान की पहली सिगरेट फ़ैक्टरी (Peninsular Tobacco Company) की स्थापना हुई। इस कम्पनी की स्थापना British American Tobacco (BAT) नामक बहुराष्ट्रीय कम्पनी ने किया था जिसके भारतीय शाखा का नाम था इम्पीरीयल टबैको कम्पनी।
लेकिन चुकी मुंगेर ज़िले में तम्बाकू की खेती नहीं होती थी इसलिए कच्चे माल के लिए गंगा नदी के उत्तर पड़ोसी तिरहुत क्षेत्र पर निर्भर रहना पड़ता था। गंगा के उत्तर में स्थित शाहपुर के अलावा पूरा समस्तिपुर ज़िला के साथ साथ दरभंगा मोतिहारी आदि क्षेत्र में भी भारी मात्रा में खैनी की खेती होती थी।
मुंगेर की सिगरेट फ़ैक्टरी के लिए ILTDC (Indian Leaf Tobacco Development Company Limited) ने तीन बीड़ी पत्ता ख़रीदी केंद्र स्थापित किया: दलसिंह सराई, शाहपुर पटोरी और खजौली। इसके अलावा पुसा कृषि विश्वविद्यालय से खैनी की उत्तम बीज (टाइप-28) किसानों में बँटवाई गई।
यहाँ उत्पादन होने वाली खैनी सिगरेट बनाने के लिए उपयुक्त नहीं था क्यूँकि यहाँ के खैनी में ज़रूरत से अधिक नमी थी। इस समस्या से निपटारा के लिए ब्रिटिश ने तीन ड्राइइंग प्लांट स्थापित किया जिसमें मुंगेर की फ़ैक्टरी तक पहुँचाने से पहले खैनी को सुखाकर उसकी नमी कम की जाती थी। वर्ष 1921 में दलसिंह सराई में स्थित ड्राइइंग केंद्र में लगभग तीन सौ मज़दूर काम करते थे।
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वर्ष 1918 में इस फ़ैक्टरी में कुल दो करोड़ सिगरेट का उत्पादन हुआ। बहुत जल्दी इस फ़ैक्टरी के पास अपना प्रिंटिंग प्रेस भी था जिसमें सिगरेट के काग़ज़ की छपाई होती थी और अपना कार्पंटरिंग प्लांट भी था जिसमें सिगरेट पैक करने के डब्बे बनते थे। जो मुंगेर बंदूक़ के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध था वहाँ अब लोग बंदूक़ के कारोबार को छोड़कर सिगरेट के उत्पादन और व्यापार में अधिक रुचि लेने लगे थे जिसमें महिलाएँ अहम भूमिका निभा रही थी।
वर्ष 1925-26 आते आते मुंगेर सिगरेट फ़ैक्टरी में तीन हज़ार से अधिक मज़दूर काम कर रहे थे जिसने इसे विश्व के सर्वाधिक बड़े सिगरेट निर्माता फ़ैक्टरीयों में से एक में गिनती कर दिया था। इस फ़ैक्टरी में मुख्यतः ‘Red Lamp’, Battleaxe’, और ‘मदारी’ जैसी किफ़ायती सिगरेट बनती थी जिसे भारतीय गरीब उपभोगता भी इस्तेमाल कर सकते थे।
शाहपुर का तम्बाकू:
समस्तिपुर ज़िले का शाहपुर का तम्बाकू अंग्रेजों के भारत आने के पहले से ही प्रसिद्ध था। कोयरी जाति के लोग यहाँ के मुख्य तम्बाकू उत्पादक जाति हुआ करती थी। लेकिन यहाँ की तम्बाकू का इस्तेमाल मुख्यतः चबाने वाली खैनी, लखनऊ का पान जर्दा और झारखंड के गुल के लिए किया जाता था। जब अंग्रेजों ने मुंगेर में सिगरेट फ़ैक्टरी लगाई तो यहाँ के तम्बाकू उत्पादन में कई परिवर्तन आए।
चुकी शाहपुर के तम्बाकू में नमी अधिक होती थी इसलिए नमी कम करने के लिए पहली ड्राइइंग प्लांट शाहपुर पटोरी में स्थापित किया गया। इसके दो वर्षों के भीतर एक अन्य ड्राइइंग प्लांट खजौली में स्थापित किया गया। यह ड्राइइंग प्लांट पहले से बंद पड़ी भकवा नील फ़ैक्टरी में स्थापित किया गया जिसके मालिक दरभंगा के महाराज थे।
माना जाता है कि ब्रिटिश सरकार ने हिंदुस्तान की पहली सिगरेट फ़ैक्टरी बिहार में लगाने का फ़ैसला शाहपुर के उच्चतम गुणवत्ता वाली तम्बाकू के कारण लिया था। देश में मुख्यतः तीन सिगरेट फ़ैक्टरी थी। तीसरी फ़ैक्टरी वर्ष 1931 में सहारनपुर में स्थापित हुई थी जबकि वर्ष 1915 में आंध्र प्रदेश के गुंटूर ज़िले में भी एक अन्य सिगरेट फ़ैक्टरी स्थापित किया गया। प्रारम्भ में बिहार देश का प्रमुख सिगरेट उत्पादन केंद्र था लेकिन बहुत जल्दी यह केंद्र दक्षिण भारत को स्थानांतरित होने वाला था।

स्वदेश आंदोलन और तम्बाकू:
1930 के दशक के दौरान जब हिंदुस्तान में स्वदेशी आंदोलन तेज हुआ तो इस बिहार के तम्बाकू उद्योग पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। दो वर्ष के भीतर सिगरेट की घटती माँग के कारण तीनो खैनी ख़रीदी केंद्र बंद कर दिया गया। वर्ष 1930 के मार्च से मई महीने के दौरान भारत में BAT सिगरेट की बिक्री 70 करोड़ से घटकर मात्र 30 करोड़ रह गई।
असहयोग आंदोलन के दौरान मुंगेर फ़ैक्टरी में काम करने वाले मज़दूरों की संख्या चार हज़ार से घटकर एक हज़ार तक पहुँच गई। इस दौरान फ़ैक्टरी के मालिक ने कांग्रेस और भारतीय मज़दूर यूनियन के नेताओं से अपील भी किया कि चुकी फ़ैक्टरी में स्वदेशी खैनी का इस्तेमाल होता है और स्वदेशी मज़दूरों को रोज़गार दिया जाता है लेकिन इस अपील का कोई असर नहीं हुआ।
हालाँकि बाद में वर्ष 1933 में पहले दलसिंह सराई, फिर 1937 में शाहपुर और 1938 में खजौली का संग्रहण केंद्र फिर से खुला क्यूँकि द्वितीय विश्व युद्ध के कारण सिगरेट की माँग फिर से बढ़ने लगी थी। लेकिन मुंगेर सिगरेट फ़ैक्टरी कभी अपने पुराने स्वरूप में फिर से ज़िंदा नहीं हो पायी और हिंदुस्तान का सिगरेट उप्तदन केंद्र आंध्र प्रदेश का South India Leaf Area (SILA) में स्थानांतरित हो गया।
जैसे जैसे मुंगेर सिगरेट फ़ैक्टरी का पतन हुआ वैसे वैसे समस्तिपुर, दरभंगा, मोतिहारी आदि क्षेत्रों में बीड़ी उत्पादन के छोटे छोटे केंद्रों की संख्या बढ़ने लगी। इस दौरान स्वतंत्रता सेनानी लोगों से सिगरेट की जगह बीड़ी का उपयोग करने के लिए लोगों से अपील करने लगे। इसी दौरान चीन में भी स्वदेश सिगरेट के उपयोग का भी अभियान तेज़ी से बढ़ा जिसके कारण ब्रिटिश सिगरेट निर्माताओं को काफ़ी नुक़सान हुआ।
आज़ादी के बाद:
1911 में इम्पीरीयल टोबैको कम्पनी का इतना रुतबा था कि इस वर्ष हुए दिल्ली दरबार का यह कम्पनी सपोंसेर था जिसके सिगरेट के विज्ञापन दिल्ली दरबार के चप्पे चप्पे पर लगा हुआ था। आज़ादी के बाद भी यह कम्पनी सिगरेट का उत्पादन करता रहा लेकिन वर्ष 1974 में इसका नाम बदलकर इंडिया टबैको कम्पनी रख दिया गया।
इसके बाद यह कम्पनी सिगरेट के व्यापार से धीरे धीरे हटकर होटेल के व्यापार में संलग्न होने लगी और आज निरोध से लेकर बिंगो जैसे चिप्स तक का भी निर्माण करती है। आज भी इस कम्पनी में भारत सरकार का 37 प्रतिशत हिस्सा है जबकि 32 प्रतिशत शेयर आम जनता के पास है और 31 प्रतिशत शेयर ITC के पास है।

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