बिहार की राजनीति में आजकल घोटाले पर, चर्चा से लेकर चप्पल-लाठी और चम्पकगिरी का दौर चल रहा है। चारा घोटाला और लालू परिवार इस पूरे दौर के केंद्र में बना हुआ है, कम से कम पिछले दो दशक से तो ज़रूर। लेकिन क्या आपको पता है बिहार में पहला घोटाला कब हुआ था?, किसने किया था?, और इस घोटाले में जिनका नाम आया वो कौन थे? और उनके साथ क्या किया गया?
बिहार के उस पहले घोटाले के बारे में आप क्या कहेंगे जिसमें देश के प्रधानमंत्री नेहरू से लेकर शिक्षा मंत्री अब्दुल कलाम आज़ाद तक का नाम घसीट दिया गया था? इस घोटाले की जाँच के लिए दो-दो जाँच आयोग का गठन किया गया। एक जाँच आयोग को प्रधानमंत्री कार्यालय ने यह कहके रद्द किया गया कि ‘पर्मिशन काहे नहीं लिए’ ‘पर्मिशन लेके हाथ रखना चाहिए था ना’ घोटालेबाज़ों के ऊपर हाथ पर्मिशन लेके रखना चाहिए था।
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1953 का बढ़ और बांध:
साल 1953 में बिहार में बाढ़ आया था, हर साल आता था। लेकिन इस बार ललित नारायण मिश्रा, हरी नाथ मिश्रा और एस एन अग्रवाल की ज़िद्द पर नेहरू कोसी क्षेत्र में दो दिनों की यात्रा पर आए। प्रधानमंत्री आए थे तो क्षेत्र और क्षेत्र की समस्या के लिए कुछ माल-पानी का इंतज़ाम होना ज़रूरी था। लेकिन नेहरू तो ठहरे वैज्ञानिक प्रवृति के, फोकट में ऐसे पैसा देने तो रहे।
समस्या के हल के लिए विशेसज्ञों की टीम बनी, अध्ययन करने के लिए। टीम को अगले साल चीन भी भेजा गया, क्यूँकि चीन के पीली नदी में भी कोसी की तरह हर साल बाढ़ आता था और चीन सरकार ने भी पीली नदी पर ढेर सारे तटबंध बनवाए थे। लेकिन ललित बाबू के प्रयास से एक्स्पर्ट कमिटी बनने से पहले ही दिसम्बर 1953 में बांध बनाने का फ़ैसला लिया जा चुका था। कोसी नदी पर तक़रीबन 150 किमी लम्बा बांध बनना था।
लेकिन कई लोगों ने बांध बनाने के इस फ़ैसले का विरोध किया, जिसमें बेतिया राज के चीफ़ इंजीनियर राय बहादुर ए सी चैटर्जी ने श्री बाबू के सामने इसका विरोध किया। स्वतंत्रता सेनानी परमेश्वर कुंवर ने राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के सामने भी विरोध किया। बांध का विरोध ने परमेश्वर कुंवर को क्षेत्र में इतना प्रसिद्धि दिया कि 1957 से 1977 तक वे महिसी विधानसभा क्षेत्र से लगातार चार बार विधायक बने। बाद में कमला नदी पर भी ऐसे ही एक बांध के निर्माण का विरोध किया गया। लेकिन ऐसे विरोध तो हमेशा से होते रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे, ऐसे विरोध से न तो नर्मदा परियोजना रुकी और न ही टिहरी परियोजना।
अब आया बात इस कोसी नदी पर 150 किमी बांध का ठेका देने का। जिसने क्षेत्र के लिए काम लाया था उसी को ठेका लेने का हक़ था। सारा ठेका ‘भारत सेवक समाज’ को मिला। ‘भारत सेवक समाज’ का गठन 1952 में हुआ था जिसमें नेहरू, गुलज़ारी लाल नंदा और अब्दुल कलाम आज़ाद जैसे बड़े-बड़े लोग कमिटी के सदस्य थे।
इस संस्था के ज़्यादातर सदस्य कांग्रेस के नेता थे, ललित बाबू और उनके कई रिश्तेदार भी इसके सदस्य थे। ऐसे ही श्याम मिश्रा को भी ठेका दिया गया जो ललित बाबू के रिश्तेदार थे। इसके बाद ललित बाबू के गाँव के हर घर में एक बालू का ठेकेदार पैदा हो गया और देखते ही देखते बलुआ गाँव कोसी क्षेत्र के सबसे धनी गाँव में से एक हो गया।
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ललित नारायण मिश्रा के गाँव का नाम बलुआ था। बिहार में किसी भी संज्ञा शब्द के साथ ‘आ’ या ‘वा’ अक्षर लगाना आम है। जैसे अगर आपका नाम लालू है तो ललुआ, नीतीश है तो नीतीशवा और बालू है तो ‘बलुआ’। एक शोध के अनुसार साल 1736 से 1936 के दौरान कोसी नदी पूर्णियाँ से 120 किमी पश्चिम खिसक गई थी। और इसी के कारण ललित बाबू का गाँव जहां पहले बाढ़ का नामों निशान नहीं था वहाँ बाढ़ के बालू पर बलुआ गाँव बस गया। कोसी की कृपा के बाद बलुआ गाँव के ऊपर ललित बाबू की कृपा हुई और बलुआ कोसी क्षेत्र का सबसे धनी गाँव हो गया।
बिहार के किसी एक मुख्यमंत्री जिसने बाढ़ निवारण के ऊपर सबसे ज़्यादा काम किया, सबसे ज़्यादा केंद्र सरकार से पैसा लाया, सबसे ज़्यादा बांध बनवाया, ठेका लिया-दिया, तो वो ललित बाबू ही थे। वो प्रयास सफल थे या असफल वो अलग विवाद है। लेकिन इसी सफलता-असफलता के विवाद पर टिका हुआ है वो तर्क जो यह कहता है कि ललित बाबू ने बाढ़ के लिए इतना सारा ठेका या योजना सिर्फ़ पैसा कमाने के लिए लाया था।
तटबंध घोटाला:
कहते है कि इस काम में नेता-इंजीनियर और ऑफ़िसर मिलके ठेके का तीस प्रतिशत तक हिस्सा कमिशन लेता था। प्रोजेक्ट शुरू होते ही यह प्रोजेक्ट विवादों में घिर गया और इसके ऊपर कई बार संसद में बहस भी हुआ जिसमें ललित बाबू प्रोजेक्ट की पैरवी करते नज़र आए। ठेकेदार संस्था ‘भारत सेवक समाज’ को राष्ट्र निर्माता, बिना लोभ-लालच के काम करने वाला और समाजसेवी संस्था बताया गया, उसका गुणगान किया गया।
एक आँकड़े के अनुसार ‘भारत सेवक समाज’ के 109 ठेकेदारों ने सरकार से बांध बनाने के लिए ठेके का पैसा ले लिया लेकिन एक रुपए का भी काम नहीं करवाया। 389 ठेकेदारों ने जितना खर्च किया उससे ज़्यादा पैसा सरकार से ले लिया और कभी वापस नहीं किया। 1962-67 के बिहार सरकार के पब्लिक अकाउंट कमिटी की रिपोर्ट में जब यह बात सामने आयी कि कोसी प्रोजेक्ट के चीफ़ इंजीनियर ने पैसे का हेरफेर किया है तो अपनी सफ़ाई में चीफ़ इंजीनियर साहब ने कहा कि उसे ऐसा करने की इजाज़त ने खुद प्रधानमंत्री दिया था।
इस रिपोर्ट में किसी घोटाले की बात भी इसलिए पता चल पाया क्यूँकि मार्च 1967-68 के दौरान बिहार में एक साल के लिए ग़ैर कांग्रेसी सरकार बनी थी। ग़ैर-कांग्रेसी सरकार ने पूरा कोशिश करके कांग्रेसी सरकार के इस घोटाले का पर्दाफ़ाश करने का कोशिश किया। लेकिन एक साल के भीतर ही उस ग़ैर-कांग्रेसी सरकार के तीन मुख्यमंत्री बदले और फिर सरकार गिर गई, फिर से बिहार में कांग्रेस की सरकार बनी और रिपोर्ट कचड़े के डब्बे में चली गई।
अब तक नेहरू जी का दौर ख़त्म हो चुका था और इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बन चुकी थी। और ललित बाबू इंदिरा गांधी के काफ़ी करीबी माने जाते थे। लोग कहते हैं की ललित बाबू प्रधानमंत्री के फंड-रेज़र थे, यानी की पैसे का इंतज़ाम करने वाला।
‘भारत सेवक समाज’ पर कई घोटाले का आरोप लगा। उनपर आरोप यह भी लगा कि ‘भारत सेवक समाज’ के ठेकेदारों ने कोसी बांध बनाने के दौरान लोकल लोगों से फ़्री में श्रमदान से काम कराया और यहाँ तक श्रमदान के लिए लोगों के साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती भी किया। 3 नवम्बर 1961 को जब बिहार के नए मुख्यमंत्री बिनोदानंद झा ने ‘भारत सेवक समाज’ के बैंक खाते का जाँच करवाना चाहा तो ‘भारत सेवक समाज’ ने 6 र को सरकार को लिखे पत्र में अपने बैंक खाते को सार्वजनिक करने से साफ इंकार कर दिया।
इसकी शिकायत जब बिहार सरकार ने ललित बाबू से किया तो 9 तारीख़ को सरकार को भेजे अपने पत्र में ललित बाबू ने सरकार से कहा कि ‘भारत सेवक समाज’ कोई सरकारी संस्था या ना ही किसी पार्टी की संस्था है, इसलिए उसके अकाउंट में पैसा ‘भारत सेवक समाज’ का है और ‘भारत सेवक समाज’ ने जो भी कमाया है वो उसका है उसका जाँच करने का आपको कोई अधिकार नहीं है। ललित बाबू उस दौर में भले ही बिहार के मुख्यमंत्री न हो लेकिन नेहरू के काफ़ी करीबी थे और उनके इशारे के बिना बिहार में कांग्रेस का कोई डिसिज़न नहीं लिया जाता था।
इस बीच बिहार में सत्ता बदली, सत्ता कांग्रेस पार्टी के हाथ से छिन गई। 22 दिसम्बर 1970 को कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने, सोशलिस्ट पार्टी से। पटना उच्च न्यायालय के एक रेटायअर्ड जज की अध्यक्षता में, कर्पूरी ठाकुर ने कोसी बांध बनाने में हुए घोटाले की जाँच के लिए 26 मई 1971 को एक जाँच समिति बनाई। एक हफ़्ते के भीतर यानी की 2 जून को कर्पूरी ठाकुर की सरकार गिरी और 14 जुलाई को नए मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्री ने जाँच समिति भंग कर दिया। कारण दिया गया कि जाँच समिति के गठन के लिए प्रधानमंत्री से पर्मिशन नहीं लिया गया था इसलिए जाँच समिति ग़ैर-संवैधानिक है।
ललित बाबू उस समय कैबिनेट मिनिस्टर थे, इंदिरा गांधी के करीबी थे। और इस तरह ललित बाबू फिर से बच गए। इस पूरे घोटाले के केंद्र में ललित बाबू ही थे। ललित बाबू ने उस दौर ‘भारत सेवक समाज’ के बैंक अकाउंट से 2 लाख 10 हज़ार रुपए निकाले थे जिसका कोई हिसाब-किताब नहीं था। उस दौर में सांसदों को एक महीने में चार सौ रुपए तनखा मिलता था। इसी से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि ललित बाबू ने जो वो 2 लाख 10 हज़ार निकाले थे उसकी आज के समय में क्या क़ीमत कितने करोड़ में होगी।
फ़िलहाल लौटते हैं इस घोटाले के जाँच के ऊपर। 27 फ़रवरी 1968 को भी बिहार के पहले OBC मुख्यमंत्री बी पी मंडल ने सर्वोच्च न्यायालय के रेटायअर्ड जज जे एल कपूर की अध्यक्षता में एक जाँच समिति बनवाई थी। लेकिन एक महीने के भीतर 22 मार्च को मंडल जी की सरकार गिर गई। अगले पाँच साल तक जाँच समिति में कोई सुग-बुगाहट नहीं दिखी और जब 1973 में बड़ी हिम्मत करके मुख्यमंत्री केदार पांडे ने रिपोर्ट को जारी करने का जोखिम लिया तो उनकी भी सरकार गिर गई।
नए मुख्यमंत्री बने अब्दुल गफ़ूर, ललित बाबू के बेहद करीबी। इतने करीबी की जब जनवरी 1975 उन्हें मारने का प्लान बनाया गया तो गफ़ूर भी हत्यारों की हीट लिस्ट में थे। चुकी ‘भारत सेवक समाज’ ने अपने अकाउंट का डिटेल नहीं दिया इसलिए रिपोर्ट में कुछ भी नहीं निकला। और इसी दौरान ललित बाबू की हत्या भी हो गई। और उनकी मौत के साथ साथ पूरा घोटाला का मामला भी ख़त्म हो गया।
उनकी हत्या के बाद ललित बाबू के भाई जगन्नाथ मिश्र बिहार के मुख्यमंत्री बनेंगे। वही जगन्नाथ मिश्र जिनके कार्यकाल के दौरान चारा घोटाला शुरू होता है और जाँच में वो दोषी भी पाए जाते हैं लेकिन कोर्ट के फ़ैसला आने से पहले उनकी भी मृत्यु हो जाती है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि इंदिरा गांधी ने जगन्नाथ मिश्र को मुख्यमंत्री उनका मुहँ बंद करने के लिए बनाया था।
दरअसल ललित नारायण मिश्र का सम्बंध रुस की ‘कमिटी फ़ोर स्टेट सिक्यरिटी’ (जिसे रूसी भाषा में KGB बोलते हैं यानी, ‘कमेतीयत् गेसोनासदोइस बेसोंपास्तनयित’ के साथ था। आरोप था कि कांग्रेस पार्टी को KGB फंड करती थी और ललित बाबू बीच में ये लेन देन करते थे। यही कारण है कि जब ललित बाबू की मृत्यु हुई थी तो इंदिरा गांधी ने इसे विदेशी षड्यंत यानी की अमरीकी एजेंसी CIA का षड्यंत बताया था क्यूँकि CIA और KGB एक दूसरे के दुश्मन थे।
ऐसे घोटालों के तार जोड़ेंगे तो बात और भी बहुत लम्बी चली जाएगी। जाते जाते बस इतना जान लीजिए कि स्कैम (घोटाला) शब्द का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। इंग्लिश डिक्शनेरी में यह शब्द पहली बार 1992 में इस्तेमाल हुआ जिसका मतलब था ‘एक trick या swindle’ या story या rumour. लेकिन भारत में घोटाला शब्द का इस्तेमाल अपराध के रूप में किया गया। ऐसे लगता है घोटाला शब्द का इजात फोड्डर स्कैम के लिए ही किया गया था।

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