1930 का दशक पहाड़ के इतिहास में वो पहला मौक़ा था जब पहाड़ों में सार्वजनिक शराब के ठेके आवंटित किए गए और शराब (दारु) की दुकानें खुली। दरअसल टेहरी राज्य के नए दीवान (मुख्यमंत्री) चक्रधर जूयाल टेहरी राज को अर्थिक तंगी से उभारने के रोज़ नए नए प्रयास में जुटे हुए थे। इस प्रक्रिया में उन्होंने राज्य की जनता पर कई नए अटपटे कर लगाए और कई पुराने कर की वसूली बढ़ाई। इसमें पलायन से वापस आने वाले लोगों पर लगाया जाने वाला ‘पाऊँटोटी’ कर शामिल था।
25 अप्रिल 1931 को स्थानिये पत्रकार भवानी दत्त पांडे द्वारा सम्पादित स्थानिये गढ़वाली पत्रिका में छपी एक खबर के अनुसार दीवान चक्रधर जूयाल ने टेहरी राज्य आदिवासी समाज के घर-घर में बनने वाली दारु पर प्रतिबंध लगा दिया। उस दौर में पहाड़ों में ख़ासकर भोटिया समाज में घर-घर शराब बनती थी और ब्रिटिश और राजा दोनो उसपर कर भी वसूलते थे। शराब का अधिकतर सेवन तीर्थयात्रा मर्गों तक सीमित हुआ करता था।
इसे भी पढ़ें: भोटिया जान और कच्ची (दारु) बनाने की विधी और विशेषतायें

शराब से आय:
ब्रिटिश गढ़वाल में वर्ष 1908 में टेहरी गढ़वाल से दारु, अफ़ीम और चरस के उत्पादन और बिक्री से कुल 12,500 रुपए का कर वसूला गया था। ये रुपए राज्य के लिए कितना महत्वपूर्ण था इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 1908 में ही पूरे टेहरी गढ़वाल में सड़क, सरकारी इमारतें आदी के निर्माण पर मात्र 63,500 रुपए खर्च किए गए थे और कृषि से सभी तरह के कर मिलाकर मात्र 1,13,900 रुपए की वसूली की गई थी।
जब टेहरी राज्य को उन 12,500 रुपए से संतुष्टि नहीं मिली तो उन्होंने पहले तो आदिवासी घरों में दारु बनाने की परम्परा को ग़ैर-क़ानूनी घोषित किया और उसके बाद दीवान चक्रधर जूयाल ने दारु बनाने और उसे बेचने का ठेका नीलामी विधी के द्वारा मैदान से आने वाले लोगों को दे दिया। अब शराब उत्पादन और बिक्री केंद्र पहाड़ के सिर्फ़ आदिवासी क्षेत्र (भोटिया और जौनसारी) और तीर्थयात्रा तक सीमित नहीं रहा बल्कि धीरे धीरे पूरे पहाड़ में फैलने लगा।
ये वही चक्रधर जूयाल थे जो वर्ष 1930 में हुए तिलाड़ी-रवाइन नरसंहार के लिए ज़िम्मेदार थे। अब टेहरी राज्य में गली गली में दारु की दुकानें खुलने लगी और उससे होने वाली मोटी कमाई टेहरी राज्य के ख़ज़ाने में जमा होने लगी। आज़ादी के बाद मुलायम सिंह सरकार द्वारा कच्ची (देशी) दारु के अंधाधुंध ठेके देने और शराब बिक्री के ख़िलाफ़ तो आवाज़ 1990 के दशक में हुई पर 1980 के दशक से पहले पहाड़ों में शराब और शराब ठेकेदारों के प्रभाव को कोई नहीं रोक पाया।
इसे भी पढ़ें: Photo Stories 4: भांग-गांजा-चरस को बचाने की लड़ाई (1893-94)
पहाड़ों में 1930 से शुरू होकर 1980 के दशक आते आते शराब संस्कृति का ऐसा प्रभाव पड़ा कि पहाड़ और पहाड़ियों के बारे में दारु सम्बंधित कई कहवाते प्रचलित होने लगी। उदाहरण के तौर पर ‘सूर्य अस्त, पहाड़ी मस्त’। आज़ादी से पूर्व पहाड़ के इतिहास में शायद की कोई ऐसी कहावत पहाड़ों में प्रचलित रही होगी जिसमें पहाड़ियों को शराबी समझा गया हो।
जब ब्रिटिश पहाड़ों में आए तो उन्होंने भोटिया समाज को छोड़कर लगभग पूरे पहाड़ को नशे की लत से मुक्त पाया। उन्निसवी सदी में पहाड़ से सम्बंधित जारी अनेक शोध, रिपोर्ट (1874_Revised Settlement in Kumaun District_J. B. Beckett) आदि में बार-बार इस बात का ज़िक्र होता है कि पहाड़ों में, शराब पीने का प्रचलन न के बराबर थी। इन रिपोर्ट में ब्रिटिश अधिकारियों ने बार बार पहाड़ियों को शराब के लत से दुर रखने की सलाह दी थी। ब्रिटिश सरकार ने भी शराब की बिक्री को पर्यटन स्थलों और हिल स्टेशन तक ही सीमित रखा।
पहाड़ों में दारु की बिक्री से सरकार को वर्ष 1821 में मात्र 91 रुपए की आमदनी हुई थी जो बढ़कर वर्ष 1833-34 में 804 रुपए तक पहुँच गई। और जैसा की ऊपर वर्णित है कि वर्ष 1908 में अकेले टेहरी गढ़वाल क्षेत्र से दारु की बिक्री पर 12,500 रुपए का कर वसूला गया। यह वसूली गढ़वाल से अधिक कुमाऊँ में था क्यूँकि गढ़वाल में शराब कर वसूली केंद्र सिर्फ़ श्रीनगर जैसे कुछ स्थानो तक ही था।
Hunt The Haunted के WhatsApp Group से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें (लिंक)
Hunt The Haunted के Facebook पेज से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें (लिंक)
[…] […]
[…] […]