वर्ष 1812 में, ब्रिटिश सर्जन विल्यम मूरक्रोफट अपने सहयोगी हाइडर यंग हीरसेय के साथ हिंदू साधु का वेश बदलकर कुमाऊँ के रास्ते नैन सिंह रावत के गाँव ‘मिलाम’ होते हुए गढ़वाल में नंदा देवी तक पहुँचते हैं। यात्रा के दौरान दोनो ने अपना नाम क्रमश मायापूरी और हरगिरी रखा था। इस यात्रा के दौरान दोनो ने रामगंगा नदी का उद्ग़म स्थल की खोज करते है। विदेशी यात्रियों को साधु का वेश बदलकर आना पड़ता था क्यूँकि 1815 से पहले गढ़वाल के पहाड़ों पर गोरखा का शासन था और गोरखा राज्य विदेशियों को प्रदेश में घुसने की अनुमति नहीं देते थे।
भारत से तिब्बत जाने के तीन रास्ते थे: नेपाल, लद्दाख़ और गढ़वाल। नेपाल पर गोरखो का राज था, और लद्दाख़ पर मुस्लिम का। गढ़वाल ही एक क्षेत्र था जहां स्थानीय हिंदू राजा और गोरखा के बीच लड़ाई चल रही थी और इसी का फ़ायदा उठाते हुए अंग्रेजों ने 1815 में गढ़वाल पर क़ब्ज़ा किया ताकि अंग्रेजों के लिए तिब्बत के रास्ते खोले जा सके।
1815 के बाद जब गढ़वाल के पहाड़ों पर ब्रिटिश का अधिकार हो गया उसके बाद ग़ैर-ब्रिटिश मूल के यूरोपीय खोजी, वैज्ञानिक, और पर्वतारोही ब्रिटिश सरकार से छुपने के लिए हिंदू साधु या बुद्ध भिक्षु का वेश बदलकर इधर आते थे। वर्ष 1855 में जर्मनी के पर्वतारोही हरमन्न, अडोल्फ़ और रॉबर्ट सचलगिनत्वेत बुद्ध लामा बनकर जोशिमठ—मिलान होते हुए गरटोक तक जाते हैं। वर्ष 1857 में तिब्बत की एक अन्य यात्रा के दौरान कशगर के पास चीनी जासूस होने के शक के आधार पर अडोल्फ़ की हत्या कर दी जाती है।
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ग़ैर-तिब्बती समाज के लोगों को तिब्बत सीमा में प्रवेश के लिए तिब्बत प्रशासन से विशेष अनुमति लेनी पड़ती थी फिर चाहे वो हिंदुस्तान या गढ़वाल के ही क्यूँ ना हों। गढ़वाल के सिर्फ़ भूटिया समाज के लोगों को ही सिर्फ़ तिब्बत सीमा में प्रवेश का अधिकार था। भूटिया समाज के लोगों को भी माणा गाँव के रास्ते तिब्बत जाकर व्यापार करने के लिए विशेष पहचान के साथ जाना पड़ता था।
जब कोई भूटिया व्यापारी तिब्बत से व्यापार कर वापस गढ़वाल आता था तो उसे एक पत्थर के दो टुकड़े करने के बाद एक टुकड़ा भूटिया व्यापारी को दिया जाता था और दूसरा टुकड़ा तिब्बती प्रशासन के पास रहता था। अगली बार तिब्बत की सीमा में प्रवेश कर व्यापार करने के लिए गढ़वाली भूटिया को पत्थर का टुकड़ा तिब्बत प्रशासन को दिखाना पड़ता था। तिब्बती अधिकारी इस पत्थर के टुकड़े का मिलान उनके पास रखे पत्थर से करते थे और जब दोनो पत्थर के टुकड़े आपस में मिल जाते थे तभी गढ़वाली भूटिया को तिब्बत में व्यापार करने दिया जाता था।

वर्ष 1865 नैन सिंह रावत जब नेपाल के रास्ते तिब्बत में प्रवेश का प्रयास कर रहे होते हैं तो उन्हें भी तिब्बत सीमा में प्रवेश करने काठमांडू के एक स्थानीय व्यापारी दावा नमगेल की मदद लेनी पड़ती है। नैन सिंह तिब्बत की सीमा में एक नेपाली व्यापारी के वेश में प्रवेश करते हैं। तिब्बती सीमा में प्रवेश करवाने के बदले दावा नमगेल नैन सिंह 100 रुपए भी लेता है। यह वो दौर था जब सोना का भाव 10 रुपए प्रति तोला हुआ करता था।
कुछ लोगों का ये भी मानना है कि वर्ष 1812 में जब ब्रिटिश मूरक्रोफट और हीरसेय तिब्बत की यात्रा कर रहे थे तो जोशिमठ—माना—बद्रीनाथ गाँव के बाद उन दोनो गोसाईं व्यापारी का वेश बदलकर तिब्बत के गरटोक तक जाते हैं। इस दौरान उन्हें गोरखा प्रशासन गिरफ़्तार भी कर लेता है। मूरक्रोफट पहले ब्रिटिश थे जो पश्चमी तिब्बत तक पहुँचे और मध्य एशियाई घोड़े और पश्मीना कम्बल ढूँढने की कोशिस की। घोड़ा अंग्रेज़ी उपनिवेश के लिए महत्वपूर्ण था और पश्मीना अंग्रेज़ी व्यापार के लिए।

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मूरक्रोफट को गरटोक में मध्य एशियाई घोड़े तो उन्हें नहीं मिले पर पश्मीना कम्बल ज़रूरी मिल गया। लेकिन लासा प्रशासन (गोरखा) द्वारा वो पकड़े जाते हैं और उन्हें तीन वर्ष की जेल की सजा दी जाती है क्यूँकि संधि के अनुसार पश्मीना कम्बल सिर्फ़ लद्धाख को निर्यात किया जा सकता था। आगे चलकर पश्मीना कम्बल का व्यापार ईस्ट इंडिया कम्पनी के लिए इतना महत्वपूर्ण हो गया कि अंग्रेजों ने इंग्लैंड में ही पश्मीना कम्बल का उत्पादन करने का प्रयास किया।