महसीर मछली मुख्यतः पूर्व और दक्षिण पूर्व एशिया के लगभग सभी देशों में पाया जाता है। हिंदुस्तान के लगभग सभी पहाड़ी क्षेत्रों ख़ासकर उत्तराखंड, असाम, और कर्नाटक में पाया जाता है। यह मछली अपने आकर, स्वाद और सुंदरता दोनो के लिए प्रसिद्ध है। मादा महसीर मछली का पेट मोटा होता है जिसके कारण छरहरे शरीर वाले नर महसीर मछली, मादा महसीर मछली से अधिक खूबसूरत होती है। गढ़वाल में महसीर की दो प्रजाति: टोर टोर और टोर पतिटोर पाई जाती है जिसमें से टोर पतिटोर सर्वाधिक संख्या में पाई जाती है। असाम में काली महसीर मछली भी पाई जाती है।

“मछली (महसीर) से सम्बंधित कई पहाड़ी कहावतें प्रसिद्ध हुआ करती थी”
पहाड़ी जन-संस्कृति में मछलियों का महत्वपूर्ण स्थान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि यहाँ कालांतर से ही मछली से सम्बंधित कई अन्य कहावतें और मान्यताएँ प्रचलित रही है। आपने हिंदी की एक कहावत ज़रूर सुनी होगी: ‘एक मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है’। पर उत्तराखंड के पहाड़ों इस कहावत के अलावा मछली से सम्बंधित कई अन्य कहावतें भी प्रचलित है जो दर्शाता है कि पहाड़ी संस्कृति, जन-जीवन और दैनिक दिनचर्या में मछली इतिहास से ही महत्वपूर्ण अंग रहा है।
- “माछा को बोई (माँ) कु सदा शोग” (The fishes mother is always in sorrow for her children) अर्थात् मछली का जीवन हमेशा ख़तरे से भरा होता है।
- “झख मारि खिचडि (Egg of fish) खै साजि नि खै बासिखै” (One kills a Fish and then eats the roe not fresh but stale) अर्थात् पहाड़ों में मछली के अंडों को महत्वपूर्ण भोजन नहीं माना जाता था। जिसे मछली का मुख्य हिस्सा नसीब नहीं होता था वही व्यक्ति मछली के अंडों से संतोष करता था।
- “माछो देखो भीतर हाथ, साँप देखो भैर हाथ।” (Seeing a fish in the water he puts in his hand, but seeing a snake he pulls it out) अर्थात् मछली पहाड़ियों को हमेशा आकर्षित करती है।
- “काटिया माछा धार” (Fish cut in pieces for cooking fled away to a ridge) अर्थात् पहाड़ी मछली बहुत फुर्तीली होती है।
- अपना को मुनकि टोलो भलो” (A tadpole caught by one’s own child is considered a good fish)
- माछो पाणो कै बगत पोव” (No one know when the fish drinks water)
उपरोक्त कहावतें के अलावा मछली से सम्बंधित अन्य पहाड़ी कहावतों का लोगों के बीच प्रचलितता लगातार घट रही है। सिर्फ़ कहावतें नहीं बल्कि पहाड़ी खान-पान में मछलियों का महत्व भी लगातार घट रहा है और साथ में घट रही है मछलियाँ। एक समय था जब इस मछली का अधिकतम वजन 54 किलोग्राम तक था पर आज दो किलोग्राम का भी ढूँढना सम्भव नहीं हो पता है।
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वर्ष 2001 में हुए एक शोध के अनुसार पौड़ी ज़िले के नयार नदी में आखेट होने वाली कुल मछलियों का लगभग एक तिहाई हिस्सा और देहरादून के सोंग नदी का 9.7% हिस्सा महसीर मछली का होता है। पर उत्तराखंड के अन्य सभी नदियों में होने वाले मछली आखेट में किसी भी नदी में 3% से अधिक हिस्सा महसीर मछली का नहीं होता है। नयार नदी में महसीर मछली का आखेट इसलिए भी अधिक हो पता है क्यूँकि अलखनंदा और भागीरथी की तुलना में इस नदी का बहाव कम है जिससे इसमें आखेट करना अधिक सुलभ होता है।

महसीर मछली की घटती संख्या और सघनता के लिए कई कारण दिए जा रहे हैं जिनमे कुछ मुख्य कारण निम्नलिखित है:
- निम्न प्रजनन और वृद्धि दर: महसीर मछली का प्रजनन दर और इसके आकार-भार का वृद्धि दर अन्य मछलियों की तुलना में बहुत कम है। एक महसीर मछली औसतन मात्रा 10 सेंटिमीटर की वार्षिक दर से बढ़ता है। (स्त्रोत)
- अत्यधिक दोहन: चुकी बाज़ार में महसीर मछली का मूल्य अधिक है इसलिए अधिक मुनाफ़े के लिए मछली का व्यापार करने वाले लोग छोटी-बड़ी सभी महसीर मछलियों का आखेट करके उन्हें मंडी पहुँचा देते हैं।
- दोषपूर्ण आखेट विधि: पहाड़ों में पिछले कुछ दशकों से आखेट के लिए ज़हरीले पत्तों के पेस्ट से लेकर विस्फोट का इस्तेमाल लगातार बढ़ता चला गया। इस दोषपूर्ण विधि में छोटी बड़ी सभी मछलियों के साथ मछलियों के अंडे भी नष्ट हो जाते हैं। इससे इन मछलियों का परिस्थितिक तंत्र नष्ट हो जाता है। उपरोक्त पहाड़ी कहावत संख्या 1 भी इस बात की ओर इंगित करता है कि किस प्रक्कर पहाड़ों में मछलियों के बच्चों तक का जीवन हर पल ख़तरों से भरा होता था। उक्त कहावत (संख्या 1) की तर्ज़ पर हिंद्दी पट्टी में एक अन्य कहावत है (चोर की माँ रात में छुपकर रोती है क्यूँकि उसे पता नहीं होता है कि उसका बेटा सुबह घर वापस आ पाएगा या नहीं)।
- नदियों में खनन: महसीर मछली अपने अंडे नदी के किनारे पत्थरों से U आकार का जल संचय बनाकर उनके छिछले पानी में देती है। अलखनंदा या भागीरथी नदी में तेज बहाव होने के कारण ही महसीर अपने अंडे इन नदियों विरले ही देती है जबकि पौड़ी का नयार नदी जैसा स्थान इनके अंडे देने के लिए सर्वाधिक उपयुक्त माना जाता है। इनके अंडे देने का स्थान 225 वर्ग फूट तक फैला हो सकता है। लेकिन नदियों में पत्थर और रेत के बढ़ते खनन के कारण महसीर मछलियों के अंडे देने का घर लगातार सीमित होता जा रहा है।
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महसीर मछली अक्सर अपनी पूरी ज़िंदगी एक निश्चित क्षेत्र में ही बिताता है लेकिन मानसून के महीने में जब जल का बहाव तेज होता है तो बहाव के विपरीत (खसकर अलखनंदा और भागीरथी नदी में) कई किलो मीटर बहाव के विपरीत दिशा में भ्रमण करता है। यह मछली बहुत फुर्तीली होने के कारण नदी के बहाव के विपरीत लम्बी-लम्बी छलाँगे लगाती है। इस दौरान नदी में महसीर का हलचल बढ़ जाता है और मछुआरों के द्वारा आखेट के लिए ये अधिक उपलब्ध रहते है। पर नदी में जल बहाव तेज होने से नदी में पानी की तेज बहाव के साथ मछुआरे के लिए शिकार करना मुश्किल होता है।
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महसीर मछली गंगा नदी में धारा के विपरीत बहाव में हरिद्वार से देवप्रयाग-श्रीनगर-रुद्रप्रयाग-कर्णप्रयाग आदि की तरफ़ चलती है। अंततः मानसून के बाद ये मछलियाँ अपने स्थाई निवास स्थान पर आ जाता है। गंगा के अलावा ये पिंडर और कुमाऊँ के सरयू नदी के साथ साथ पौड़ी के नयार जैसी सहायक नदियों में और भिमताल (नैनीताल) में भी भारी संख्या में मिलती थी पर अब नहीं।
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- स्त्रोत:
- Destruction of Spawning Grounds of Mahseer and Other Fish in Garhwal Himalayas by P. Nautiyal & M S Lal, Journal of Bombay Natural History Society, Vol 85, 1981.
- Provers & Folklore of Kumaun and Garhwal by Pandit Ganga Dutt Upreti, published in 1894. (Download Link)
- Present status and prospects of mahseer fishery in Garhwal Region of Central Himalaya by A. P. Sharma and Ashutosh Mishra
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