वर्ष था 1841, देहरादून ज़िले का वो हिस्सा जो यमुना और सीतला नदी के बीच का था वो बंजर था। यहाँ न खेती होती थी और न ही जंगल थे यहाँ। 1830 का दशक आते आते हिंदुस्तान में कृषि विकास के लिए अंग्रेजों का जमींदारों पर से विश्वास ख़त्म होने लगा था। सरकार धड़ल्ले से नहरों की खुदाई करवा रही थी।
“देहरादून को दिल्ली और हरियाणा यमुना नदी पर नहर नहीं बनाने देना चाहता था”
देहरादून में एक नहर (बीजापुर) बन चुका था दूसरा (राजपुर) बन रहा था और तीसरे पर विचार हो रहा था। ये तीसरा नहर था, कुत्था पुत्थौर नहर जिससे 17000 एकड़ जमीन की सिंचाई होने की सम्भावना थी। भू-राजस्व विभाग ने अप्रैल में योजना बनाई, जुलाई में दिल्ली-करनाल क्षेत्र के राजस्व विभाग ने आपत्ति जाहिर की, अक्टूबर में मेरठ के कमिश्नर ने स्वीकृति दी, और अगले साल अप्रैल महीने तक राज्य सरकार ने भी नहर निर्माण की स्वीकृति दे दी।

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नहर निर्माण पर कुल 90307 रुपए का खर्च बताया गया और सरकार ने एक लाख रुपए स्वीकृत कर दिया। नहर बनने के बाद किसानो से पाँच आने प्रति बीघा की दर से सिंचाई कर लगाना तय हुआ जिससे सरकार को 7000 रुपए वार्षिक की आमदनी होने की सम्भावना थी। इस सम्बंध मे सिंचाई कर इकट्ठा करने के लिए क्षेत्र के तीन जमींदारों को पहले ही धमकी दे दी गई। उन्हें नहर की मरम्मत का भी कार्यभार दिया गया। इस नहर के निर्माण से देहरादून शहर को पीने के पानी की किल्लत से निजात मुफ़्त में होने वाली थी। इस नहर पर बनने वाले तीन डैम से होने वाले आय ऊपर से था।

इस नहर के निर्माण से पहले से ही गर्मी और पानी की कमी से जूझ रही दिल्ली के साथ-साथ रोहतक और हिसार से प्रति सेकंड 75 घन फुट पानी छिनने वाला था। दिल्ली के साथ हरियाणा के गोरे साहब (अधिकारियों) ने भी इस नहर का विरोध किया। अगर गंगा देवभूमि की प्यास बुझाती थी तो यमुना दिल्ली की थी।
गोरों की सरकार के ख़िलाफ़ लगातार विद्रोह की धमकी देते रहने वाले मुगलों, मराठों और जाटों से भरी दिल्ली से कहीं बेहतर देहरादून लगा जहां नहर बनने से अंग्रेजी राजस्व में फायदा होता। तब दिल्ली अंग्रेज़ी सरकार की नहीं बल्कि उनके दुश्मन हिंदुस्तान (मुग़ल) की राजधानी थी जो बहुत जल्दी श्मशान में तब्दील होने वाली था। 1857 की क्रांति, विद्रोह, संग्राम सब कुछ होने वाली थी और इन सबसे देहरादून चमकने वाला था।

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दिल्ली और देहरादून के बीच लम्बी नोक-झोंक के बाद अंततः 1854 में यह नहर बनकर तैयार हुआ और तीन वर्ष के भीतर (1857) में दिल्ली ने विद्रोह कर दिया। आज ये नहर ‘काटा-पत्थर नहर’ के नाम से जाना जाता है जो आज भी देहरादून की प्यास बुझाता है। लेकिन अंग्रेज़ी शासन के दौर में अंग्रेजों के लिए काटा-पत्थर ही साबित हुआ। 1857 के बाद अंग्रेजों ने देहरादून की प्यास बुझाने के लिए देहरादून में यमुना नदी पर दूसरा नहर नहीं बनाया।
हालाँकि माना तो ये भी जाता है कि अंग्रेजों से पहले गढ़वाल की रानी कर्णावती जी ने भी देहरादून (दून) के आस-पास कई नहरों की निर्माण करवाया था जिसमें राजपुर का नहर और काटा पत्थर नहर भी शामिल था। कर्णावती द्वारा बनवाए गए नहरों के अवशेष आज भी देहरादून में देखे जा सकते हैं। इतिहास में नहरों को बनाने, मरम्मत करने और पुराने नहर को नई तकनीक से बनाने का रिवाज रानी कर्णावती से भी पुराना है।
स्त्रोत: Journal Of The Asiatic Society Of Bengal 1842 Vol Xi, pp.761-75, (लिंक)
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