नीती घाटी का पतन 1930 के दशक से ही शुरू हो गया था। वर्ष 1939 में कुमाऊँ, गढ़वाल होते हुए तिब्बत की यात्रा पर निकले यूरोपीय यात्री कैप्टन राबर्ट हामोंड लिखते हैं:
“ग्राम प्रधान भूपन सिंह को हमने दिल्ली से निकलने से दो दिन पहले ही हमारे आने की सूचना भेज दिया था ताकी वो हमारे लिए यातायात के साधन और भारवाहकों का इंतज़ाम पहले ही कर लें लेकिन उन्होंने कुछ नहीं किया था। नीती पहुँचकर हमें इंतज़ाम करने में दो दिन का समय बर्बाद करना पड़ा।”
वो आगे लिखते हैं,
“नीती घाटी में यातायात के साधन और भारवाहक बहुत महँगे हैं। यहाँ दस जानवर का किराया दो रुपया और पाँच जानवर (भारवाहक) को सम्भालने के लिए एक व्यक्ति की मज़दूरी डेढ़ रुपया था। यानी की दस भारवाहक जानवर रखने के लिए आप को प्रतिदिन पाँच रुपया खर्च करना पड़ेगा जबकि तिब्बत में इसके आधे से भी कम दाम में इतने ही भारवाहक मिल जाते थे।
नीती के इन भारवाहकों के नख़रे से वे इतने परेशान हो गए कि तिब्बत के डाबा-चु घाटी पहुँचते ही उन्होंने स्थानिय भरवाहकों का इंतज़ाम करके नीती के भरवाहकों को हमेशा के लिए वापस भेज दिया। एकमात्र स्थानिये गढ़वाली भरवाहक/गाइड जो उनके साथ रहा वो था कलैन सिंह जो माणा घाटी का था। उस दौर में नीती घाती में सर्वाधिक पर्यटक आते थे जिससे वहाँ के भरवाहकों और गाइड के भाव बढ़े हुए थे।

नीती घाटी क्यूँ?
उत्तराखंड के माणा समेत अन्य घाटियों की तुलना में नीती घाटी में हिंदुस्तान की सर्वाधिक ऊँचा पर्वत शिखर नंदा देवी समेत अन्य पर्वत शिखर अधिक ऊँचे और वनस्पति व वन्य विविधता के नज़रिय से अधिक महत्वपूर्ण और सुंदर था। यही कारण है की पर्वतीय खोज और अन्वेषण में रुचि रखने वाले पश्चमी पर्वतारोहियों के लिए नीती घाटी पहली पसंद में से एक बन गया था।
1931 में Frenk Smythe द्वारा वैली ओफ़ फ़्लावर (फूलो की घाटी) की खोज और वर्ष 1934 में नंदा देवी शिखर की पहली सफल चढ़ाई के बाद सामान्य पर्यटकों के लिए भी नीती घाटी आकर्षण का केंद्र बनकर उभरा। सम्भवतः यह नीती की सुंदरता ही थी जिसके कारण पहाड़ों के इतिहास में यह कहावत प्रचलित रहा:
‘नीति जाइक थीनि’
(One wishes to stop after getting to Niti)
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पर्यटन से पतन:
पर्यटन अपने साथ शहरी और विकास की गंदगी लाता है। प्लास्टिक, टिन के डब्बे, खुले में शौच, प्रकृति के साथ छेड़छाड़ ये सब उस दौर में भी हुआ। विदेशी यात्रियों द्वारा लाए गए डिब्बाबंद खाध्य पदार्थों के इस्तेमाल के बाद टिन व शीशे के ख़ाली डब्बे और बोतल स्थानिय लोगों के लिए इतने अधिक महत्वपूर्ण थे कि उसे पाने के लिए वो लोग आपस में झगड़ते थे।
1900 के दशक से ही ये डब्बे और बोतल स्थानिय लोगों के लिए अमीरी का प्रतीक बन गया था। वर्ष 1905 में ऐल्पायन क्लब के A L Mumm (लिंक) अपने यात्रा वृतांत में लिखते हैं, “
“हमारे यहाँ आने से यहाँ के स्थानीय लोगों को जितना भी नुक़सान/परेशानी हुई है उसकी भरपाई के लिए ये ख़ाली टिन और काँच के डब्बे-बोतल काफ़ी है जो हम यहाँ से जाते समय यहीं छोड़ कर जा रहे हैं। यहाँ लोग ख़ाली टिन के डब्बों और काँच की बोतलों को बेशक़ीमती समझते हैं। इनका इस्तेमाल ये लोग वर्फ से पानी पिघलाने और पानी रखने के लिए करते हैं।”
1930 के दशक के अंत होते होते नीती घाटी का वैकल्पिक मार्ग की तलाश इस आधार पर होने लगी थी कि नीती घाटी के रास्ते अधिक ख़तरनाक और फिसलन भरे हो चुके थे। पर दूसरी तरफ़ नंदा देवी घाटी क्षेत्र को वर्ष 1939 में वन्यजीव अभ्यारण्य घोषित कर दिया गया जिससे पर्यटकों की संख्या और बढ़ने लगी। नीती घाटी के वैकल्पिक मार्ग के रूप में चोर होटी घाटी और टुन जून ला घाटी उभर रही थी पर इन दोनो घाटी के रास्ते अज्ञात थे। ऐसे में माणा घाटी धीरे धीरे अधिक प्रचलित होने लगी।

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इन सबके बिच आता है वो दौर जब वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध, वर्ष 1982 में नंदा देवी क्षेत्र को राष्ट्रीय उद्यान, वर्ष 1988 में बायोस्फीयर रिज़र्व और वर्ष 1992 में विश्व धरोहर घोषित किए जाने के बाद क्षेत्र में पर्यटन और पर्वतारोहण पुरी तरह प्रतिबंधित कर दिया गया।
एक आँकड़े के अनुसार नीती घाटी के रेनी, लाता, तोलमा, पेंग आदी गाँव के 90% ग्रामीण पर्यटन गाइड के रूप में कार्य करते थे जो एक झटके में बेरोज़गार हो गए। इस क्षेत्र में पर्यटन से 1960 व 1970 के दशक तक प्रत्येक घर में 1500-2000 रुपए वार्षिक आमदनी होती थी। ये वो दौर था जब एक शिक्षक की मासिक आय (लिंक)150-200 रुपए मासिक होती थी।
यह वही क्षेत्र है जहाँ कुछ वर्ष पहले चिपको आंदोलन हुआ था। लेकिन अब यहाँ के स्थानिय लोग सरकार द्वारा क्षेत्र में पर्यटन पर लगाए गए प्रतिबंध के ख़िलाफ़ लड़ाई कर रहे थे। वर्ष 1998 में लगभग 500 स्थानिय लोग अपना विरोध प्रकट करने के लिए बिना अनुमति के अभयारण में घुस गए। इस दौर में उत्तरखंड के अनेक भागों में वन पर स्थानिय अधिकार के लिए ‘पेड़ काटो आंदोलन’ (लिंक) भी हुए। पर सरकार के ऊपर कोई असर नहीं पड़ा। नीती घाटी के विपरीत इस पर्यावरण संरक्षण के दौर माणा घाटी आज भी अपनी ख़ुशहाली और पर्यटन बचा पाई है क्यूँकि माणा घाटी में बद्री-विशाल (बद्रीनाथ) का निवास है।

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