वर्ष 1931 में सम्पन्न हिंदुस्तान के आख़री जातिगत जनगणना के अनुसार उत्तराखंड के पहाड़ों में कुल हिंदू जनसंख्या की तुलना में दलितों का अनुपात लगभग 22 प्रतिशत था जबकि उत्तराखंड के कुल जनसंख्या कि तुलना में दलितों का अनुपात 20.79 प्रतिशत था। वर्ष 2011 की जनगणना आते-आते उत्तराखंड की कुल जनसंख्या की तुलना में दलितों का अनुपात बढ़कर 21.56 प्रतिशत हो गया जबकि उत्तराखंड की कुल हिंदू जनसंख्या कि तुलना में दलितों का अनुपात बढ़कर 24.70 प्रतिशत तक पहुँच गई। वहीं दूसरी तरफ़ कुल हिंदू आबादी में उच्च जातियों का अनुपात वर्ष 1931 की 73.72 की तुलना में वर्ष 2011 में घटकर मात्र 65.73 प्रतिशत ही रह गई हाई।

अर्थात् उत्तराखंड में उच्च जातियों का जनसंख्या अनुपात कम से कम पिछले अस्सी वर्षों से लगातार घट रहा है। अर्थात् उत्तराखंड में दलितों का जनसंख्या अनुपात पिछले अस्सी वर्षों से लगातार बढ़ रहा है। उत्तराखंड और अधिक दलित बनता जा रहा है। उत्तराखंड और अधिक शोषक बनता जा रहा है। उत्तराखंड और अधिक जातिवादी बनता जा रहा है। उत्तराखंड में समाज के अल्पसंख्यकों की जनसंख्या और अनुपात दोनो बढ़ रहा है।
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वर्ष 1931 और 2011 के दौरान उत्तराखंड में मुस्लिमों का अनुपात 4.82 से बढ़कर 9.26 तक पहुँच गया है। इसी तरह सिख, जैन, बौद्ध और ईसाई जैसे अन्य धर्मों को मानने वाले लोगों का अनुपात भी उत्तराखंड में वर्ष 1931 की 0.64 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2011 में 3.46 प्रतिशत हो चुका है।

इस शोध में उत्तराखंड की उस सीमा और मानचित्र का इस्तेमाल किया गया है जिसका प्रयोग वर्ष 1931 की जनगणना के दौरान कुमाऊँ, गढ़वाल, नैनीताल, अल्मोडा, देहरादून ज़िला और टेहरी रियासत को समग्र रूप से प्रदर्शित करने के लिए किया गया था। इस शोध में तकनीकी कारणों से हरिद्वार ज़िला को शामिल नहीं किया गया है क्यूँकि हरिद्वार वर्ष 1931 में सहारनपुर ज़िले का हिस्सा था और हरिद्वार नाम सहारनपुर ज़िले का कोई प्रखंड भी नहीं था जिसका पृथक आँकड़ा इकट्ठा किया जा सके।

काव्य संग्रह: ‘हिमालय दलित है’
हाल ही में ‘हिमालय दलित है’ शीर्षक से एक काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ जिसके लेखक है मोहन आर्य जो सार्वजनिक तौर पर अपने आप को मोहन मुक्त कहलाना पसंद करते हैं। दरअसल इसका भी ऐतिहासिक कारण है। उन्निसवीं सदी के आख़री वर्षों के दौरान आर्य समाज और ब्रह्म समाज उत्तर भारत के पश्चिमी क्षेत्रों और ख़ासकर वर्तमान मुज़फ़्फ़रनगर, मोरादाबाद, बिजनौर नजीबाबाद आदि उत्तराखंड के पड़ोसी ज़िलों में तेज़ी से अपना प्रसार कर रहे थे। वर्ष 1891 की जनगणना में आर्यसमाजी ब्रिटिश सरकार को जनगणना में अपने आप को अन्य हिंदुओं से अलग गणना करने के लिए राज़ी कर चुके थे जिसके बाद भारतीय जनगणना में आर्य समाजियों की जनसंख्या लगातार बढ़ रही थी।(स्त्रोत, पृष्ठ-499) (स्त्रोत)

1930 के दशक के दौरान भारतीय राजनीति बाबासाहेब अम्बेडकर के प्रादुर्भाव और उनके द्वारा दलित पहचान के साथ छेड़छाड़ करने की राजनीति का विरोध किया गया। बाबा साहेब अम्बेडकर ने गांधी जी द्वारा दलितों को हरिजन शब्द से निर्दिष्ट करने का भी विरोध किया। दलितों की पहचान की मज़बूत होती इस राजनीति ने भारतीय जनगणना से आर्य-समाजी, ब्रह्म-समाजी या राधास्वामी जैसे पृथक पंथ के गणना को बंद करवाया। मोहन आर्य द्वारा अपना नाम बदलकर मोहन मुक्त करना सम्भवतः दलित पहचान के साथ छेड़छाड़ के उसी विरोध का हिस्सा हो।
किताब के एक समीक्षक पूरण बिष्ट ने ‘हिमालय दलित है’ काव्यसंग्रह की समीक्षा करते हुए लिखा, “लेखक ने जो भूमिका लिखी है वो इस पुस्तक के शीर्षक पर लिखी है, तमाम जगह पर मुझे लेखक अपनी किताब की हैडलाइन (शीर्षक) जो जस्टिफाई करते हुए दिखता है, और मैं इस बात पर अपना विरोध दर्ज करता हूँ।” सवाल यह उठता है कि क्या जस्टिफाई करने की ज़रूरत नहीं है? ज़रूरत इस बात की भी है कि ‘हिमालय दलित है’, इस बात को काव्य या साहित्य के साथ-साथ ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय साक्ष्यों व स्त्रोतों के साथ भी उत्कृष्ट किया जाए।

मोहन मुक्त के अलावा अनिल कार्कि जैसे युवा दलित (आदिवासी) साहित्यकार उत्तराखंड के जातिवादी पक्ष पर लिखा है। कुंवर प्रसून जैसे पत्रकार ने भी इस विषय पर अपने पूरे जीवनकाल में खूब लिखा लेकिन रामचंद्र गुहा और वंदना शिवा जैसे अंग्रेज़ी भाषा में लिखने वाले प्रख्यात लेखकों ने उनकी आवाज़ों के बिल्कुल विपरीत उत्तराखंड के ग़ैर-जातिवादी और ग़ैर-प्रितसत्तावादी पक्ष को इतना अधिक प्रचारित किया कि उत्तराखंड से आने वाले इन दलित व महिला आवाज़ों को हमेशा गौण किया जाता रहा।
आज जब हिंदुस्तान एक बार फिर से विलंबित भारतीय जनगणना 2021 की तरफ़ बढ़ रहा है और देश के लगभग सभी हिस्सों में जातिगत जनगणना की माँग लगातार बढ़ रही है तो ऐसे में ज़रूरी है कि हिंदुस्तान के विभिन्न हिस्सों में जाति के जनगणनात्मक सवालों पर पुरानी बहस को ज़िंदा किया जाए। संजीव कुमार द्वारा लिखित और हाल ही में प्रकाशित किताब ‘जातिगत जनगणना: सब हैं राज़ी, फिर क्यूँ बयानबाज़ी‘ सम्भवतः उसी प्रयास का हिस्सा है।

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