हिंदुस्तान के महान विश्वविख्यात फ़िल्मकार सत्यजीत रे ने भी एक कहानी केदारनाथ पर लिखी थी जिसका बंगाली में उन्होंने शीर्षक दिया था ‘एबार कांडो केदारनाथ ए’ अर्थात् ‘केदारनाथ में अपराध’ या ‘Crime In Kedarnath’. 1960 और 1970 के दशक के दौरान दो खंडो में लिखी फ़ेलूदा की अड्वेंचर’ शीर्षक से प्रकाशित संकलन के दूसरे भाग में ‘केदारनाथ में अपराध’ नाम के शीर्षक से एक कहानी है। बाद में बीबीसी ने इसका रेडीयो प्रसारण भी किया।
सारांश: केदारनाथ में अपराध
सारांश में बताएँ तो ‘केदारनाथ में अपराध’ कहानी है एक जासूस फ़ेलूदा और उनके मित्र लालमोहन गांगुली के द्वारा एक वैद्य, भवानी उपाध्याय, जो सन्यासी बन चुका था उसकी खोज के लिए हरिद्वार होते हुए केदारनाथ से भी आगे तक का सफ़र। जासूस फ़ेलूदा के साथ साथ उस वैद्य सन्यासी की खोज में दो और लोग निकले हुए थे जिसमें से एक राजकुमार पवनदेव थे, और एक पत्रकार। इस जासूसी यात्रा में केदारनाथ के पवित्र प्रांगण में जानलेवा हमले, मार-पीट और यहाँ तक कि गोलियाँ भी चली।

भूमिका:
कहानी शुरू होती है 1930 के दशक में जब अलीगढ़ से 90 किमी पर स्थित रूपनारायणपुर रियासत के राजा चंद्रदेव सिंह अस्थमा से परेशान थे। राजा के मैनेजर उमाशंकर पूरी राजा के इलाज की खोज में हरिद्वार में निवास कर रहे वैद्य भवानी उपाध्याय के पास पहुँचे। वैद्य ने तीन दिनों में राजा की बीमारी दूर कर दी। जब वैद्य की फ़ीस देने की बारी आयी तो वैद्य ने सिर्फ़ पचास रुपए की माँग रखी। राजा ज़िद करके वैद्य को एक अमूल्य हार भेंट के रूप में दे दिए।
तीस वर्ष बीत चुके थे। भारत-चीन युद्ध में भारत की पराजय हो चुकी थी। ऋषिकेश से बद्रीनाथ-केदारनाथ सड़क मार्ग का निर्माण हो चुका था। पहले इस मार्ग पर सिर्फ़ देवप्रयाग तक ही मोटर-मार्ग था लेकिन अब गौरीकुंड तक पहुँच चुका था। आज़ाद हिंदुस्तान में राजा-रजवाड़ों की रियासत छिन चुकी थी। राजकुमार अपनी पुरानी सम्पत्तियों को जितना हो सके समेट रहे थे और राजा के मंत्री बेरोज़गार हो चुके थे। पूर्ण स्वतंत्रता के साथ कुछ पत्रकार मीडिया मशाला की फ़िराक़ में लगे रहते थे।
रूपनारायणपुर रियासत के राजा के मैनेजर ने जासूस फ़ेलूदा से सम्पर्क किया उस वैद्य का पता करने के लिए जिसे राजा ने वो बेशक़ीमती हार उपहार में दिया था। दलील यह दिया कि चुके राजा के छोटे बेटे पवनदेव अपने पिता की बीमारी की इलाज और उस वैद्य की घटना पर एक फ़िल्म बनना चाहते हैं इसलिय उस वैद्य से सम्पर्क करना बहुत ज़रूरी है।
हालाँकि मैनेजर पूरी ने फ़ेलूदा को बताया कि उसे शक है कि पवनदेव वो बेशक़ीमती हार वैद्य से वापस पाने की कोशिश करे क्यूँकि पवनदेव आर्थिक तंगी से गुजर रहा था और फ़िल्म निर्माण के लिए बहुत पैसे चाहिए थे। पूरी ने फलुदा को बताया कि वो नहीं चाहते हैं कि उस भले वैद्य के साथ कुछ भी ग़लत हुए। पूरी ने फ़ेलूदा को यह भी बताया कि बहुत ही जल्दी पवनदेव भी वैद्य की खोज में हरिद्वार जाने वाला है। उस समय फ़ेलूदा की फ़ीस तय हुई एक हज़ार रुपए काम होने से पहले और एक हज़ार काम होने के बाद।
हरिद्वार तक:
दो दिन के बाद ही मैनेजर पूरी का फ़ेलूदा के नाम एक टेलीग्राम आया जिसमें केस को बंद करने का आग्रह था। कुछ दिन बाद मिले पत्र में पूरी ने कारण बताते हुए लिखा कि पवनदेव अब उस बेशक़ीमती हार पर फ़िल्म नहीं बनाना चाहते हैं अब वो सिर्फ़ बीमारी पर फ़िल्म बना रहे हैं। इस समय तक जासूस फ़ेलूदा के मन में वैद्य उपाध्याय और पवनदेव के बारे में जानने की जिज्ञासा बढ़ चुकी थी। ऊपर से हरिद्वार-ऋषिकेश घूमने के इससे बेहतर मौक़ा नहीं मिल सकता था।
दून इक्स्प्रेस ट्रेन पकड़कर फ़ेलूदा सीधे पहुँचे हरिद्वार। ट्रेन में एक अन्य राही माखनलाल मजूमदार भी थे जो धार्मिक नहीं बल्कि पर्यटन के उद्देश्य से तीन बार बद्री-केदार जा चुके थे। बद्री-केदार तक मोटर सड़क बन जाने हिमालय में ग़ैर-धार्मिक पर्यटकों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही थी।
दून इक्स्प्रेस हरिद्वार सुबह छह बजे पहुँची। पहले के विपरीत इस बार हरिद्वार में पंडों की संख्या कम हो थी। स्टेशन में ही फ़ेलूदा ने चाय पी और मनेजर से वैद्य उपाध्याय के बारे में पूछा तो पता चला कि वैद्य हरिद्वार छोड़कर रुद्रप्रयाग तीन महीने पहले जा चुके थे। लक्ष्मण मोहल्ले में वैद्य के मकानमालिक कांतिभाई पंडित के यहाँ जाने पर पता चला कि तीन दिन पहले एक पवनदेव भी वैद्य के बारे में जाँच-पड़ताल कांतिभाई के पास आए थे। तीन महीने पहले भी दो मारवाड़ी सेठ भी उपाध्याय वैद्य से मिलने हरिद्वार आए थे और वैद्य से वो हार ख़रीदने का असफल प्रयास किया था।
कांतिभाई को भी कुछ गड़बड़ होने का शक हुआ। हरिद्वार में कई लोगों को पता था कि वैद्य के पास कुछ तो क़ीमती है जो वो सबसे छुपाकर रखता है। इस छुपाने की प्रवृति के कारण कुछ लोग तो वैद्य को मानसिक रूप से अव्यवस्थित भी समझने लगे थे लेकिन चुकी हरिद्वार में सभी वैद्य जी के बहुत इज्जत करते थे इसलिए उनसे कभी कुछ बोलते नहीं थे। राजकुमार पवनदेव कुछ घंटे पहले ही अपने कैमरा और नौकरों के साथ रुद्रप्रयाग की तरफ़ अपनी निजी कार से निकल चुका था।
कांतिभाई ने भी फ़ेलूदा के साथ वैद्यजी की खोज में रुद्रप्रयाग जाने का फ़ैसला लिया। जल्दी जल्दी एक टैक्सी किराए पर लिया गया और तीनों निकल पड़े। हरिद्वार-ऋषिकेश रास्ते पर गंगा पहले से अधिक गंदी नज़र आ रही थी। शहर का हर कोना छोटे-बड़े मकान से भर चुका था, और दीवारों पर इस्तहरों की बाढ़ लग चुकी थी। टैक्सी का ड्राइवर एक गढ़वाली था जिसका नाम जोगिंदर राम था, (सम्भवतः एक दलित। अभी गढ़वाल के ठाकुरों और पंडितों में बेरोज़गारी इतनी नहीं बढ़ी थी कि ड्राइवर बने।)
हरिद्वार से रुद्रप्रयाग:
ऋषिकेश पहुँचकर रुद्रप्रयाग स्थित कालिकमली धर्मशाला में कमरा बुक करने का असफल प्रयास किया गया। अंततः गढ़वाल निगम के रेस्ट हाउस में एक कमरा मिल गया जिसमें दो बिस्तर पहले से थे और तीसरे बिस्तर के इंतज़ाम हो जाने का भरोसा मिल गया। रुद्रप्रयाग पहुँचने से पहले जासूस फ़ेलूदा को रास्ते में तीन शहर मिले: देवप्रयाग, कृतिनगर और श्रीनगर। (फ़ेलुदा की नज़र में श्रीनगर गढ़वाल ज़िले की राजधानी थी। सम्भवतः बाहर से आए लोगों के लिए पौड़ी का अस्तित्व मिट चुका था।)
रास्ते में जासूस फ़ेलुदा को यह बात बार बार परेशान कर रही थी कि मैनेजर पूरी ने उन्हें ये क्यूँ कहा कि पवनदेव अब उस बेशक़ीमती हार पर फ़िल्म नहीं बनाना चाहता है जबकि पवनदेव वैद्यजी के पीछे पीछे रुद्रप्रयाग तक पहुँच गया था। फ़ेलुदा सोच रहे थे कि उस वैद्य को उस हार के कारण आगे कितना फ़ज़ीहत उठाना पड़ सकता है। रुद्रप्रयाग पहुँचते ही ड्राइवर जोगिंदर ने सड़क के किनारे इशारा करते हुए बताया कि रुद्रप्रयाग में यहाँ एक साइन बोर्ड हुआ करता था। इसी जगह पर जिम कोर्बेट ने उस ख़ूँख़ार बाघ को मार गिराया था जिसने सैकड़ों लोगों को अपना शिकार बनाया था।
रुद्रप्रयाग गढ़वाल निगम रेस्ट हाउस के मैनेजर गिरधारी जी ने फ़ेलुदा का एकदम पहाड़ी स्टाइल में स्वागत किया। जब गिरधारी को पता चला कि फ़ेलुदा जासूस हैं तो डर गया कि कहीं पहाड़ में कुछ अनहोनी तो नहीं होने वाला है। लेकिन जब फ़ेलुदा ने वैद्य उपाध्याय की खोज के बारे में बता रहे थे तब-तक वहाँ एक और यात्री आ गए। पेशे से पत्रकार थे और फ़ेलुदा की जासूसी कहानियाँ पढ़ चुके थे और उन्हें पहचानते भी थे। नाम था कृष्णकांत भार्गव। पत्रकार भार्गव महोदय बोले, “वो (वैद्य) तो यहाँ से चले गए हैं, मैं उनके ऊपर एक कहानी लिखने के लिए यहाँ तक पहुँच गया लेकिन अब पता चला कि वो तो केदारनाथ चले गए हैं।”
उसी समय एक अमेरिकन कार सामने आकर लगी। पीले रंग की उस कार में राजकुमार पवनदेव थे, अपने दो चमचों के साथ। कुर्सी पर पैर के ऊपर पैर लगाते हुए राजकुमार बोले, “क़िस्मत ही ख़राब है, उपाध्याय बद्री (बद्रीनाथ) में भी नहीं मिला।” इतना सुनते ही गिरधारी फुसफुसाया, “पता नहीं यहाँ जो भी आ रहा है सब उस उपाध्याय को ही क्यूँ खोज रहा है?”
पवनदेव के साथ थोड़ी बातचीत के बाद फ़ेलूदा को विश्वास नहीं हुआ कि पवनदेव के मन में वैद्य या उसके बेशक़ीमती हार को लेकर बेयमानी है। फ़ेलुदा ने पवनदेव को अपना सही परिचय नहीं दिया और लालमोहन बाबू की तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि वो वैद्यजी से अपने मित्र का इलाज करवाने आए हैं जो मानसिक रोग से ग्रसित है। अगली सुबह तड़के सभी केदारनाथ की तरफ़ प्रस्थान करने वाले थे। पत्रकार भी, पवनदेव भी, कांतिभाई और फ़ेलुदा भी, साथ में लालमोहन बाबू भी।
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रुद्रप्रयाग से गौरीकुंड:
सुबह सुबह जब सभी अपने अपने सामान कार में रख रहे थे तो पवनदेव जासूस फ़ेलुदा के पास आए और बोले, “आपकी सच्चाई पता चल गई है मुझे, रात को गिरधारी ने नशे में मुझे सब बता दिया।” मैं सिर्फ़ आपसे एक सवाल पूछना चाहता हूँ, “क्या आपको यहाँ उमाशंकर पूरी ने मेरे उपर नज़र रखने के लिए भेजा है?”
जवाब में फ़ेलुदा ने कहा, “अगर वो मुझे भेजे भी होते तो मैं आपको नहीं बताता क्यूँकि यह हमारे पेशे का उसूल नहीं है। हालाँकि मेरे यहाँ होने में पूरी जी का कोई लेना देना नहीं है। मैं बस वैद्य उपाध्याय से मिलना चाहता हूँ। और हाँ, अगर उसे कोई नुक़सान पहुँचाने की कोशिस करेगा तो मैं चुपचाप देखता भी नहीं रहूँगा।”
“क्या मैं भी आपसे एक सवाल पूछ सकता हूँ?” फ़ेलुदा ने पवनदेव से पूछा
“जी बिलकुल”
“अगर आपको वैद्य उपाध्याय मिल जाते हैं तो क्या आप अपनी फ़िल्म में वैद्य जी का वो बेशक़ीमती हार भी दिखाएँगे?”
“बिलकुल”
“लेकिन आपको नहीं लगता है कि ऐसा करने से उनके जीवन पर ख़तरा बढ़ जाएगा? चोर बदमाश उनके हार के पीछे पड़ जाएँगे?”
“अगर वैद्यजी सच में सन्यासी बन गए हैं तो उन्हें उस बेशक़ीमती हार की क्या ज़रूरत है? मैं तो उन्हें वो हार किसी संग्रहालय को दान कर देने की गुज़ारिश करूँगा, ताकि उनका नाम इतिहास में दर्ज हो जाए। मैं उसे फ़िल्म में शूट करने जा रहा हूँ और आपके लिए बेहतर यहीं होगा कि आप मेरे रास्ते में आने की कोशिस नहीं करे।” पवनदेव का जवाब सुनकर फ़ेलुदा का पवनदेव पर शक और बढ़ गया। पत्रकार महोदय केदारनाथ को प्रस्थान करते करते इस शक को और अधिक बढ़ा गए जब उन्होंने कहा,
“मुझे नहीं लगता पवनदेव सिर्फ़ फ़िल्म शूट करने के लिए यहाँ आया है।”
अगस्तमुनि, गुप्तक़ाशी और सोनप्रयाग होते हुए गौरीकुंड का सफ़र तक़रीबन 80 किमी का था। गुप्तक़ाशी में जलेबी, कचौरी और चाय का नाश्ता किया गया। (हालाँकि आज सिर्फ़ मैगी, और चाय मिलती है।) पवनदेव की कार फिर रूकी।
“हम यहाँ कुछ फ़ोटो लेने रुके थे, गुप्तक़ाशी एकमात्र जगह हैं जहां से केदारनाथ और बद्रीनाथ दोनो दिखता है।” इतना कहकर पीली अमेरिकन कार फुर्र से गौरीकुंड की तरफ़ निकल गई।
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फ़ेलुदा की कार का ड्राइवर जोगिंदर बहुत देर से नहीं दिख रहा था। अधिक विलम्ब होने से केदारनाथ पहुँचने में अंधेरा हो सकता था। इतने में पता चला कि जोगिंदर के ऊपर किसी ने हमला किया है और उसके सर से खून बह रहा है। उसे गुप्तक़ाशी स्थित हॉस्पिटल ले ज़ाया गया, इलाज करवाया गया, लेकिन फ़ेलुदा के दिमाग़ में यही सवाल उठ रहा था कि जोगिंदर पर हमला उसी ने करवाया है जो नहीं चाहता है कि हम केदारनाथ पहुँचे। घायल ड्राइवर की टैक्सी से यात्रा सम्भव नहीं था।
फ़ेलुदा का पवनदेव और पूरी के ऊपर शक अब और अधिक पुख़्ता होते जा रहा था। लालमोहन बाबू ने तो पत्रकार महोदय को भी इस आधार पर शक के घेरे में ले लिए कि पत्रकार महोदय के जेब कलम नहीं था।
गौरीकुंड पहुँचकर स्थानीय पंडा का कमरा लिया गया। कमरा छोटा था लेकिन सस्ता भी था। पर आश्चर्य यह था कि पवनदेव अभी भी गौरीकुंड में ही था। वो चाहता तो घोड़ा-खच्चर लेकर केदारनाथ आज शाम तक ही पहुँच सकता था। वो फ़ेलुदा से लगभग चार घंटे पहले गौरीकुंड पहुँच चुका था।
गौरीकुंड केदारनाथ यात्रा का आख़री मोटर पड़ाव था। केदारनाथ जाने वाले यात्री सिर्फ़ गौरीकुंड तक ही बस या टैक्सी से सफ़र कर सकते थे। गौरीकुंड से केदारनाथ मंदिर तक का सफ़र तय करने के लिए तीन तरीक़े थे: डोली, कंडी, घोड़ा-खच्चर या पैदल। शाम को अगली सुबह तड़के केदारनाथ मंदिर पहुँचने के लिए यात्री अपना अपना इंतज़ाम कर रहे थे।
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