गौरीकुंड से केदारनाथ:
वैध भवानी उपाध्याय और उसके बेशक़ीमती हार की खोज में केदारनाथ की यात्रा पर अब तक जासूस फ़ालूदा के साथ साथ एक पत्रकार, एक राजकुमार, और एक जासूस का दोस्त गौरीकुंड तक पहुँच चुके थे। केदारनाथ की यात्रा पर पहले ज़्यादातर यात्री महिला और बुजुर्ग हुआ करते थे लेकिन अब पाँच वर्ष तक का बच्चा और पुरुषों की संख्या लगातार बढ़ रही थी। नीचे में लोहा लगा एक नुकीली छड़ी सभी यात्री अपने साथ लिए हुए थे लेकिन जासूस फ़ेलुदा के दोस्त लालमोहन बाबू, ‘जय केदार’ का नारा सार्वधिक ऊँचे स्वर और संख्या में लगा रहे थे।
अभी चलते हुए बीस मिनट ही हुए थे कि एक छोटा पत्थर उपर से लुढ़कते हुए जासूस फ़ेलुदा के हाथ पर लगी। हाथ में पहनी एचएमटी घड़ी के साथ साथ हाथ पर भी चोट आया। फ़ेलुदा को समझ आ गया था कि यह पत्थर किसी ने जानबूझकर उपर से फेंका है। फ़ेलुदा तेज़ी से उपर की ओर लपके और एक स्थानीय व्यक्ति को दबोच लिया। पूछताछ पर उस स्थानीय यूवा ने स्वीकार किया कि उसने वो पत्थर जानबूझकर फेंका था क्यूँकि इसके लिए किसी ने उसे पैसे दिए थे। उस यूवा को स्थानीय पुलिस के हवाले करके फ़ेलुदा आगे बढ़े और बहुत जल्दी सभी लोग रामवाडा पहुँच गए।
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केदारनाथ:
शाम को लगभग पाँच बजे सभी केदारनाथ मंदिर पहुँच चुके थे। फ़ेलुदा एक दुकान पर चाय पी रहे थे कि वहाँ पवनदेव पहुँचे और फ़ेलुदा से पूछा, “आपको उपाध्याय (वैध) मिले? मैं यहाँ ढाई बजे ही आ गया था, जितना हो सके पता किया लेकिन उनका कोई पता नहीं चला, सम्भवतः वो पूरी तरह सन्यासी बन चुके हैं। उन्होंने अपने कपड़े, नाम सब बदल लिया होगा और ऐसे में उन्हें ढूँढना लगभग असम्भव है।”
अभी चाय ख़त्म भी नहीं हुई थी कि पीछे से एक जानी पहचानी आवाज़ सुनाई दिया,
“आप आ गए, ज़्यादा दिक़्क़त तो नहीं हुई?”
ये माखनलाल मजूमदार थे, फ़ेलुदा की मुलाक़ात इनसे ट्रेन में हुई थी।
“आपका हरिद्वार में काम पूरा हो गया?”
“नहीं, इसीलिए तो यहाँ आया हूँ। मैं एक व्यक्ति की खोज में रुद्रप्रयाग होते हुए यहाँ तक आ पहुँचा हूँ। हरिद्वार पहुँचने पर पता चला कि वो यहाँ आ गए हैं।”
“कौन”?
“भवानी उपाध्याय”
“आप भवानी को खोजना यहाँ आ रहे थे, और अपने ट्रेन में मुझे बताया तक नहीं।” मजूमदार ने आश्चर्य से फ़ेलुदा की तरफ़ देखते हुए बोला।
“आप जानते हैं उन्हें?”
“जनता हूँ? मैं उन्हें सात साल से जनता हूँ। उन्होंने मेरे अलसर का इलाज एक गोली में कर दिया था। जब वो हरिद्वार से यहाँ के लिए निकल रहे थे तब भी मैं उन्हें मिला था। उसने मुझे बोला था कि वो रुद्रप्रयाग जा रहा है। मैंने उससे कहा कि रुद्रप्रयाग में शांति नहीं मिलेगी। सड़क मोटर पहुँच जाने से वहाँ आधुनिकता और भिड़ एक साथ पहुँच चुकी है। मैंने ही उसे केदारनाथ जाने का सलाह दिया था।”
“हम उन्हें कैसे मिल सकते हैं?” फ़ेलुदा एक उम्मीद से मजूमदार से पूछा।
“यहाँ नहीं मिल सकते हो, वो केदारनाथ के तीन चार किमी पीछे किसी गुफा में रहता है। अपने चोराबलीताल का नाम सुना है? आजकल उसे गांधी सरोवर भी कहते हैं।”
“हाँ हाँ जनता हूँ।”
“आपको वहीं जाना होगा। कोई सड़क या रास्ता नहीं है वहाँ के लिए। बर्फ़ में होते हुए जाना पड़ेगा। वो सरोवर के पास ही एक गुफा में रहते हैं। लोग उसे सिर्फ़ भवानी बाबा के नाम से जानते हैं।”
“आप उनसे मिलने वहाँ गए है क्या?”
“नहीं नहीं, एक स्थानीय व्यक्ति ने मुझे बताया, वो इधर कभी कभी सिर्फ़ कुछ खाने के लिए फल लेने को आते हैं। वो अब सिर्फ़ फल और सब्ज़ी पर रहते हैं।”
इतना सब कुछ बताने के बाद मजूमदार वहाँ से चले गए। फ़ेलुदा की जासूसी को फिर से जैसे एक नयी जान मिल गई हो शायद। तभी लालमोहन बाबू आए और बोले, “आपको बिरला गेस्ट हाउस बुला रहा है कोई?’
“कौन?”
“कोई सिंघानियाँ है।”
“ये वही मारवाड़ी सिंघानियाँ होंगे जो वैध उपाध्याय से वो बेशक़ीमती हार ख़रीदने का असफल प्रयास करने हरिद्वार आए थे। चलो।” फ़ेलुदा बिरला गेस्ट हाउस की तरफ़ तेज़ी से आगे बढ़े। बिरला गेस्ट हाउस की सफ़ाई देखकर फ़ेलुदा दंग थे। उन्होंने सुना था कि केदारनाथ में खाने के लिए सिर्फ़ आलू मिलता है। लेकिन उन्हें विश्वास था कि बिरला गेस्ट हाउस में ज़रूर कुछ अच्छा भी मिलता होगा।
गेस्ट हाउस में सिंघानियाँ के साथ बातचीत में पता चला कि सिंघानियाँ ने वैध उपाध्याय को उस बेशक़ीमती हार के लिए पाँच लाख रुपए तक देने के लिए तैयार था।
“लेकिन आपको उस हार के बारे में कैसे पता चला?” फ़ेलुदा ने सिंघानियाँ से आश्चर्य में पूछा।
“उमाशंकर पूरी, राजा का मैनेजर, का बेटा मेरे पास दिल्ली आया था। वो चाहता था कि मैं वो हार ख़रीदूँ और उसे उसके बदले कुछ कमिशन दूँ। जब वैध ने हार बेचने से इनकार कर दिया तो पूरी का बेटा को इसमें इंट्रेस्ट नहीं रहा लेकिन मेरा इंट्रेस्ट आज भी उतना ही है। मैं एक बार और कोशिश करना चाहता हूँ, उसे एक नया ऑफ़र दूँगा। वैसे भी अगर वो सन्यासी बन गया है तो उस बेशक़ीमती हार का क्या करेगा?”
“आप वैधजी से मिलने जाएँगे?”
“कैसे जाऊँगा, वो बहुत ही दुर्गम गुफे में रहते हैं। पर आप यहाँ क्या कर रहे हैं?” जब उस मारवाड़ी सिंघानियाँ को पता चला कि फ़ेलुदा भी वैध उपाध्याय को ही ढूँढने केदारनाथ तक आए हैं तो उन्होंने फ़ेलुदा से एक गुज़ारिस किया।
“अगर आप वैध उपाध्याय से मिले तो क्या मेरी तरफ़ से उसे एक ऑफ़र पेश कर सकते हैं? आप उन्हें वो बेशक़ीमती हार मुझे बेचने के लिए उन्हें मना सकते हैं? मैं आपको दस प्रतिशत कमिशन दूँगा।” सिंघानियाँ ने फ़ेलुदा की तरफ़ एक आख़री उम्मीद के नज़र से देखा।
“पर क्या आपको पता है उस बेशक़ीमती हार की खोज में कुछ और लोग भी केदारनाथ पहुँचे हुए हैं?”
“हाँ पता है, पत्रकार, राजकुमार सबके बारे में पता है।” मारवाड़ी सिंघानियाँ अभी भी फ़ेलुदा की तरफ़ एक आख़री उम्मीद की निगाह से देखे जा रहे थे।
“देखिए सिंघानियाँ जी मैं आपसे कोई वादा तो नहीं कर सकता हूँ लेकिन अगर मैं वैध उपाध्याय से मिल पाता हूँ तो आपका संदेश उन्हें ज़रूर बता दूँगा।”
फ़ेलुदा पर हमला:
रात अंधेरी हो चुकी थी। फ़ेलुदा अपने निवास स्थान, केदारनाथ बस्ती में स्थित काली कमली धर्मशाला की तरफ़ बढ़ रहे थे। रास्ते में उनकी मुलाक़ात पवनदेव से भी हुई।
“ये पवनदेव तो ठीक है लेकिन वो मारवाड़ी बहुत ख़राब आदमी था। उसके पास टेपरिकॉर्डर था। वो हमारी सारी बातें रेकर्ड कर रहा था।”
झल्लाए लालमोहन बाबू बोले जा रहे थे। तभी पीछे से किसी ने जासूस फ़ेलुदा पर हमला किया। मैं (लेखक) उस हमलावर के पीछे भागा और पीछे से घायल फ़ेलुदा ने अपनी तीखी नोख वाली छड़ी फेंककर हमलावर को मारा। हमलावर गिर गया और दर्द से कराहने लगा और कराहते हुए किसी तरह वहाँ से भागा। लेकिन इस बीच लालमोहन बाबू ने भी हमलावर के सर पर कुछ दे मारा जिससे उसके सर से खून निकलने लगा था। केदारनाथ की धरती खून से लाल थी।
“तो अब गुंडा भी केदारनाथ तक पहुँच चुके हैं।” धर्मशाला में एक डॉक्टर से मरहम पट्टी कराते हुए फ़ेलुदा बोले। डॉक्टर यात्री बंगाली था और केदारनाथ के पहाड़ की प्राकृतिक सुंदरता से प्रभावित होकर कई बार केदारनाथ आ चुका था। उसे लगता था कि मोटर-कार आने से केदारनाथ ही नहीं पूरे पहाड़ में अपराध और अपराधी बढ़ने लगे हैं। घायल फ़ेलुदा से मिलने धर्मशाला पत्रकार महोदय भी आए लेकिन लाख प्रयास के बावजूद फ़ेलुदा ने उन्हें नहीं बताया कि वो अगली सुबह वैध से मिलने गांधी सरोवर की तरफ़ जाने वाले हैं।
“मुझे पवनदेव से मिलना है, अभी।” देर रात में फ़ेलुदा हड़बड़ाते हुए पवनदेव के निवास की तरफ़ निकले। सुरक्षा के लिए उन्होंने अपना बंदूक़ अपने साथ ले लिया था। पर लालमोहन बाबू चिंतित थे। उन्हें लगता था कि फ़ेलुदा को केदारनाथ में ऐसे ख़तरा लेकर पवनदेव के पास नहीं जाना चाहिए था।

केदारनाथ से गांधी सरोवर:
अगली सुबह साढ़े चार बजे ही फ़ेलुदा केदारनाथ से गांधी सरोवर को निकलने के लिए तैयार थे। दस मिनट में लालमोहन बाबू भी तैयार होकर केदारनाथ मंदिर के पीछे से निकलते हुए हुए गांधी सरोवर की तरफ़ बढ़ने लगे। पूरा रास्ता बर्फ़ से ढका हुआ था, हाथ जम रहे थे और मुहँ से आवाज़ तक नहीं निकल पा रही थी।
“लालमोहन बाबू आप तो पूरी यात्रा के दौरान ‘जय केदार’ का नारा तेज तेज से खूब लगाए हैं ना? जब मैं बोलूँ तो फिर से लगाइएगा?”
“हां हाँ हां ह” दांत कटकटते हुए लालमोहन बाबू बोले।
फ़ेलुदा और लालबाबु गांधी झील के बिलकुल सामने पहुँच चुके थे। सामने दूर एक गुफा भी दिख रही थी। फ़ेलुदा को एहसास हुआ कि वहाँ उनके अलावा कोई और भी है। छुपकर देखा तो पवनदेव भी अपने कैमरा के साथ पहुँचे हुए थे। कैमरा का इस्तेमाल टेलिस्कोप की तरह करते हुए वो गुफा के दरवाज़े पर नज़र गड़ाए हुए थे। कैमरा फ़ेलुदा की तरफ़ बढ़ाते हुए पवनदेव बोले,
“गुफा का दरवाज़ा इस कैमरा में पूरा साफ़ दिख रहा है।”
फ़ेलुदा को कैमरा में वैध उपाध्याय अपनी गुफा से बाहर निकलते हुए दिख गए। फ़ेलुदा बड़ी सावधानी से गुफा के दरवाज़े की तरफ़ छुपते-छुपाते आगे बढ़ने लगे।
“मैं यहीं रहूँगा, कैमरा में सब क़ैद करूँगा यहीं से।” पवनदेव बोले।
अभी फ़ेलुदा गुफा के दरवाज़े तक पहुँच भी नहीं थे कि उन्हें एहसास हुआ कि वहाँ कोई और भी था। एक पत्थर के पीछे से हाथ में एक बंदूक़ लिए, लम्बी कोट पहने एक व्यक्ति वैध की तरफ़ निशाना लगाने का प्रयास कर रहा था। वैध उपाध्याय इन सब से अनभिज्ञ सूरज की पहली किरण का स्वागत करने के लिए पूर्व की दिशा में एकटकि लगाए ध्यान से देखे जा रहा था।
“तुम्हें जैसे ही बंदूक़ की गोली की आवाज़ सुनाई पड़े, तेज से ‘जय केदार’ चिल्लाना। और तुम यहीं रहो।” लालमोहन बाबू को इतना बोलते हुए फ़ेलुदा उस चट्टान की तरफ़ दबे कदमों से बढ़े। अब फ़ेलुदा उस चट्टान से मात्र बीस यार्ड की दूरी पर एक दूसरे चट्टान की आड़ में खड़ा था। फ़ेलुदा ने अपना बंदूक़ निकाल लिया था। इतने में वैध उपाध्याय की नज़र उस चट्टान के पीछे छिपे उस लम्बी कोट वाले व्यक्ति की तरफ़ गई। फ़ेलुदा ने फ़ायर किया और बड़े कोट वाले व्यक्ति का बंदूक़ उसके हाथ से गिर गया। उसके हाथ से खून निकल रहा था। फ़ेलुदा ने उस व्यक्ति के हाथ में गोली मारी थी।
लालमोहन बाबू को अपनी ज़िम्मेदारी याद थी। गोली की आवाज़ सुनते ही वो तेज से ‘जय केदार चिल्लाए।’ जय केदार के नाम पर हिमालय की सफ़ेद चादर पर खून बह रहा था। पहाड़ी के पीछे से कई पुलिस वाले गोली लगे उस व्यक्ति की तरफ़ बढ़े। पत्रकार कृष्णकांत भार्गव भी वहाँ पहुँच चुके थे। गोली लगे व्यक्ति ने पहचान छुपाने के लिए चहरे पर नक़ली दाढ़ी लगा रखा था। पुलिस ने उसके चहरे से उसकी दाढ़ी हटाई और फ़ेलुदा ने उसकी टोपी। वो उमाशंकर पूरी (राजा का मैनेजर) का बेटा देविशंकर पूरी था।
“जैसा बाप वैसा बेटा, इसका बाल बनाने का तरीक़ा तक अपने बाप जैसा था।”
सन्यासी से सामना:
वैध सन्यासी अपनी जगह से बिना हिले अभी भी निष्क्रिय मुद्रा में खड़ा था।
“माफ़ कीजिए” वैध सन्यासी का पहला अक्षर निकला।
“अब आपको वो अपनी पोटली खोलनी चाहिए इसे आप तीस सालों से रखे हुए है, ये सब उसी के कारण हो रहा है। क्या उसे अपने गुफा में रख रखा है?” फ़ेलुदा गुफा के दरवाज़े की तरफ़ इशारा करते हुए बोले।
“हाँ”
इतना सुनते ही एक कोंस्टबल गुफा के भीतर गया और एक पोटली बाहर ले आया। खोलने पर उसमें वो चमचमाती हारी निकली जो हिमालय कि सूर्योदय वाली रोशनी में चारों तरफ़ चमक रही थी। साथ में था वो काग़ज़ जो राजा ने वैध को यह हार देते समय दिया था जिसपर यह लिखा हुआ था कि वो ये हार वैध को अपनी स्वेच्छा से इनाम के रूप में दिया है।
“आप कौन है?” फ़ेलुदा ने वैध सन्यासी से पूछा। “क्या आप अपना असली नाम हमें नहीं बता सकते हैं जो आपके बंगाली पिता ने आपको दिया था? मैंने देखा है आपका पत्र जो अपने कांतिभाई को लिखा था, उसपर जो हिंदी अपने लिखा है उसे लिखने का तरीक़ा बंगाली है।”
“आपको तो बहुत कुछ पता है मेरे इतिहास के बारे में, बहुत तेज है आपका दिमाग़।” सन्यासी के चेहरे पर अभी भी मुस्कुराहट थी।
“क्या मैं आपसे एक और सवाल कर सकता हूँ? भवानी उपाध्याय आपका असली नाम नहीं है न?”
“आप कहना क्या चाह रहे….”
“यही कि आपका असली नाम दुर्गमोहन गंगोपाध्याय है।” वैध सन्यासी को बीच में रोकते हुए फ़ेलुदा ने कहा।
इतना सुनते ही लालमोहन बाबू हक़-बक हो चुके थे।
“ये तो मेरे दुर्गमोहन काका हैं, मेरे एकमात्र काका।” हकलाते हुए लालमोहन बाबु बोले।
“काका मैं बालू हूँ।” इतना बोलते हुए लालमोहन बाबू अपने काका का पैर छूते हुए प्रणाम किया।
“कैसी प्रभु की माया है ना? कौन सोच सकता था कि मैं अपने भतीजे से ऐसे मिलूँगा। अब चुकी तुमसे मेरी मुलाक़ात हो गई है इसलिए इस हार का मालिक तुम ही हो। मुझे अब इसकी कोई ज़रूरत नहीं है।” लालमोहन बाबू के सर पर आशीर्वाद का हाथ रखते हुए वैध सन्यासी बोले।
“हाँ काका, मैं इसे बैंक लॉकर में रख दूँगा। और बच्चों के लिए इसपर एक ‘जुर्म कहानी’ लिखूँगा। क्या पता आगे आने वाले समय में कोई ऐसी कहानी पढ़ना भी नहीं चाहे, लेकिन मैं लिखूँगा।”
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