अंग्रेजों ने बिहार को तीन सांस्कृतिक हिस्सों में बाटा था: मिथिला, मगध और भोजपुरी। पहला क्षेत्र था मगध, जो अपने में इतिहास का सबसे पुराना गौरव बुद्ध से लेकर चाणक्य और राजगृह-नालंदा से बौध-गया तक समेटे हुए था। लेकिन इसी मगध क्षेत्र को ब्रिटिश सबसे ज़्यादा गरीब, आलसी और असभ्य लोगों वाला क्षेत्र मानते थे। दूसरी तरफ़ भोजपुरी था, जिसे अंग्रेज मेहनती, झगड़ालू और घुमंतू समझते थे। शायद यही कारण था की अंग्रेजों के दौर में देश के भीतर और देश के बाहर भी सबसे ज़्यादा पलायन इसी भोजपुरी क्षेत्र के लोगों का हुआ था, इंडेंचर्ड मज़दूर के रूप में।
लेकिन तीसरा क्षेत्र मज़ेदार है। तीनों में से सबसे बड़ा क्षेत्रफल वाला क्षेत्र है ये और आज भी अपनी क्षेत्रीय पहचान के लिए संघर्ष का रहा है। तीसरा क्षेत्र था मिथिला, मिथिला को ब्रिटिश रूढ़िवादी, एकांतिक यानी अपने आप का दम्भ रखना और दूसरों से कम मतलब रखने वाले लोगों का क्षेत्र और ब्राह्मण डॉमिनेटेड संस्कृति मानते थे। क्या पता अपने आप से अधिक मतलब रखने का यह स्वभाव ही शायद मिथिला क्षेत्र के लोगों को अलग राज्य बनाने के लिए इतना लम्बा आंदोलन करने के लिए प्रेरित करता हो।
मिथिला की अवधारणा:
ब्रिटिश के लिए मिथिला का मतलब था वो क्षेत्र जहां मैथिल भाषा या बोली बोलने वाले लोग रहते हैं। 1886 में जारी लिंग्विस्टिक सर्वे ओफ़ इंडिया (Sir George Grierson) के सर्वे रिपोर्ट के अनुसार मैथिल क्षेत्र में आज के उत्तरी बिहार से लेकर दक्षिणी-पूर्वी बिहार के ज़िलों के अलावा वर्तमान झारखंड के भी उत्तरी पूर्वी ज़िले शामिल थे। इंटर्नैशनल मैथिली काउन्सिल द्वारा जारी मिथिला राज्य के मानचित्र में बिहार के 24 और झारखंड के 6 ज़िलों को शामिल किया गया है। ब्रिटिश मिथिला में यहाँ तक कि दक्षिणी नेपाल के भी आठ जिलें शामिल है जिसे मिथिला राज्य के लिए आंदोलन करने वाले लोगों ने अपने मानचित्र में शामिल नहीं किया है।
दरअसल नेपाल में पृथक मिथिला राज्य की माँग बहुत पहले पूरी हो चुकी है। सितम्बर 2015 में नेपाल में अलग मैथिल (मधेशी) राज्य बन गया। क्षेत्रफल के अनुसार यह नेपाल का सबसे छोटा राज्य है लेकिन जनसंख्या के अनुसार दूसरा सबसे बड़ा राज्य।
मिथिला राज्य आंदोलनकारियों की माने तो अलग मिथिला राज्य आंदोलन का इतिहास तीन सौ वर्ष पुराना है। हालाँकि मैथिली क्षेत्र का पहला उदाहरण 1881 के George Grierson के रिपोर्ट में पहली बार मिलता है इसलिए मैथिल क्षेत्र की अवधारणा डेढ़ सौ साल भी पुराना नहीं है। वो वो अवधारणा भी भौगोलिक नहीं बल्कि मैथिल भाषाई क्षेत्र की थी। इसलिए उस दौर में मिथिला की पहचान और लड़ाई दोनो भाषा तक अधिक सीमित थी। 1881 ई. में मिथिला शब्द कोष भी बनकर तैयार हो गया और सन् 1919 ई. में पहली बार कोलकाता विवि, 1937 ई. में बनारस विवि., 1948 पटना विवि में मैथिली विषय की पढ़ाई शुरू हुई।
उस दौर में मैथिल क्षेत्र का ज़्यादातर हिस्सा दरभंगा के ज़मींदार का क्षेत्र हुआ करता था। इसलिए अलग राज्य की पहली माँग भी दरभंगा महाराज के दरबार से ही शुरू हुई। आंदोलनकारियों के अनुसार अलग राज्य की पहली माँग 1912 में तब की गई जब बिहार को बंगाल से अलग करके अलग राज्य बनाया गया था। हालाँकि इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है।
पहला ऐतिहासिक प्रमाण साल 1921 में मिलता है जब दरभंगा महाराज रामेश्वर सिंह ने अलग मिथिला राज्य की माँग की। यह 1920 का वो दौर था जब ओड़िसा को अलग राज्य बनाने की भी माँग तेज हो रही थी, पटना में बंगालियों के प्रभुत्व को बिहार के भूमिहार, राजपूत और कायस्थ कम करने का प्रयास कर रहे थे। बंगाली पटना से खदेड़े जा रहे थे। इस दौरान बिहार की राजनीति के भीतर भी ब्राह्मणों और कायस्थों का प्रभुत्व काम हो रहा था और राजपूत-भूमिहार प्रदेश की राजनीति का चेहरा बन रहे थे।
ऐसे दौर में एक ब्राह्मण ज़मींदार, दरभंगा महाराज के द्वारा एक ब्राह्मण डॉमिनेटेड क्षेत्र के लिए अलग राज्य की माँग स्वाभाविक थी क्यूँकि दो दशक के भीतर प्रदेश की राजनीति पर भूमिहारों और राजपूतों का एकतरफ़ा राज बढ़ने वाला था। राजनीति में श्री बाबू से लेकर अनुग्रह नारायण, आंदोलन में स्वामी सचिदानंद से कला साहित्य में रामधारी सिंह दिनकर तक सभी या तो मगध क्षेत्र से थे या भोजपुरी क्षेत्र से। जे पी जैसे कायस्थ जिन्होंने बिहार की राजनीति पर राज किया वो भी मिथिला के बाहर के ही थे।
अधिकारिक तौर पर अलग मिथिला राज्य की माँग पहली बार सन 1940 के मैथिली महासभा के अधिवेशन में पास किया गया। इस माँग को आगे भी दरभंगा महाराज ने कई मीटिंग और मैथिल मिहिर पत्रिका (लक्ष्मण झा) में बार बार दोहराया था। लक्ष्मण झा वही थे जिन्होंने बिहार-नेपाल सीमा पर पिलर तोड़ो अभीयान चलाया था लेकिन बाद में उन्होंने अपने मिथिला अभियान को लेख लिखने तक सीमित कर लिया था।
आज़ादी के बाद भी अलग मिथिला राज्य की माँग की प्रक्रिया हर बार असफलता के साथ चलती रही। संक्षेप में बताऊँ तो जानकीनंदन सिंह ने 1954 के कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में अलग राज्य की माँग के साथ एक प्रतिनिधिमंडल भेजने का प्रयास किया लेकिन आसनसोल रेल्वे स्टेशन पर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। फ़रवरी में स्टेट Reorganisation Commission के साथ भी मीटिंग की लेकिन कमिशन ने अपनी रिपोर्ट में मिथिला शब्द का एक बार उच्चारण तक नहीं किया। भोजपुरी के बारे में और उनकी अलग राज्य के बारे में तो फिर भी कमिशन नकारात्मक ही सही पर लिखा तो सही।
इसके बाद मिथिला राज्य की माँग ठंढे बस्ते में चली गई। 1954 में जो भी थोड़ा बहुत प्रयास किया गया उसके बारे में कहा जाता है कि वह प्रयास दरभंगा महाराज के व्यक्तिगत प्रयास थे और दरभंगा में कांग्रेस के भीतर फूँट के कारण सम्भव हो सका वरना अलग राज्य जैसा कोई जन-आंदोलन तो छोड़िए मिथिला राज्य की कोई जन-आवाज़ तक नहीं थी।
यह जन-आवाज़ बनती भी कैसे जब मैथिल ब्राह्मणों से दुगनी से भी ज़्यादा आबादी वाले यादव और मुसलमान इस अलग राज्य की माँग से अलग रहते तो। मैथिल ब्राह्मण मिथिला के अन्य जातियों को साथ लेना तो दूर वो दूसरे क्षेत्र के ब्राह्मण को भी अपने से अलग समझते हैं, उनके साथ वैवाहिक सम्बंध तक नहीं बनाते हैं।
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मैथिल आंदोलन का आम जनता के साथ कितना नज़दीकी सम्बंध था इसका अंदाज़ा आप इस बात से ही लगा सकते हैं कि अलग मिथिला राज्य आंदोलन के नायक दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह देश में हुए पहला लोकसभा चुनाव में ही हार गए थे, कांग्रेस के श्याम नंदन प्रसाद से हार गए थे। उन्हें कांग्रेस ने ही दो बार राज्य सभा भेजकर राजनीतिक रूप से ज़िंदा रखा।
अलग मिथिला राज्य आंदोलन में ऐसे कई विरोधाभास हैं जिनका एक एक परत अलग करने के लिए और ख़ासकर आज़ादी के बाद के समय के इन विरोधाभासों को समझने की ज़रूरत है। यह समझने की ज़रूरत है कि मिथिला राज्य के मानचित्र, मैथिल भाषा, वहाँ की सामाजिक परिस्थिति आदि का आंदोलन के साथ कैसे विरोधाभासी सम्बंध है।
अलग मिथिला राज्य की माँग के लिए मुख्यतः तीन तर्क दिए जाते हैं:
१) मैथिल भिन्न संस्कृति है जिसकी भाषा से लेकर कला-साहित्य, खान-पान, और इतिहास बिहार के अन्य क्षेत्रों से बिल्कुल भिन्न है।
२) मिथिला बिहार के अन्य क्षेत्रों की तुलना में विकास के विभिन्न पहलुओं पर बहुत पिछड़ा है।
३) आज़ाद हिंदुस्तान में मिथिला के साथ भेदभावपूर्ण आर्थिक नीति अपनाई गई है जिसके कारण मिथिला विकास की गति में पिछड़ गया।
इसमें कोई शक नहीं है कि मिथिला क्षेत्र बिहार के अन्य क्षेत्रों की तुलना में विकास के विभिन्न पहलुओं और ख़ासकर राजनीतिक और आर्थिक विकास के पहलुओं पर अधिक पिछड़ा है। 2007 के एक सर्वे के अनुसार बिहार में कुल 38 में से 35 ज़िले पिछड़ा है और बारह ज़िला अति-पिछड़ा है। ये बारह के बारह ज़िले मिथिला क्षेत्र से आते हैं जिसमें से 11 उत्तरी बिहार में और एक झारखंड में स्थित है।
एक अन्य शोध में बिहार के कुल 11 ज़िलों को अति पिछड़ा ज़िला में शामिल किया गया और उसमें से 11 ज़िला मिथिला राज्य में स्थित है। इन 11 में से 10 बिहार का हिस्सा है और एक झारखंड का। लेकिन मिथिला की यह स्थिति हमेशा नहीं थी। वर्ष 1974 में कर विभाग द्वारा जारी पिछड़े ज़िलों की सूची में 22 ज़िले पिछड़े थे।
इसी तरह राजनीति में भी मिथिला का दबदबा आज़ादी के पहले से दरभंगा महाराज के रहते ही ख़त्म हो चुका था। आज़ाद हिंदुस्तान में ज़्यादातर नेता या तो मगध क्षेत्र से हुए हैं या भोजपुर क्षेत्र से। उदाहरण के लिए बिहार के तीन सर्वाधिक प्रसिद्ध मुख्यमंत्री श्री बाबू, लालू यादव और नीतीश कुमार में से दो मगध और एक भोजपुर क्षेत्र में रहेंगे। जगन्नाथ मिश्र को छोड़कर बिहार का कोई भी मुख्यमंत्री मिथिला क्षेत्र से नहीं हुआ है।
विश्वास नहीं होता है कि ये वही मिथिला है जिसके दरभंगा महाराज एड़ी चोटी एक करके पटना को बिहार की राजधानी बनवाए थे अंग्रेजों से लड़कर। एक समय नेपाल तक के मिथिला क्षेत्र को पिलर तोड़ो अभियान चलाकर एक मिथिला राज्य बनाने वाले मिथिला का मिथिला आंदोलन कब दरभंगा के आस-पास तक संकुचित होते चला गया पता ही नहीं चला। फ़िलहाल इस एपिसोड को यहीं रोकते हैं ताकि अगले एपिसोड में मिथिला के लोगों से ही जान पाए मिथिला राज्य का फ़लसफ़ा और उसके इर्द गिर्द के अंतः विरोधों को।

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