वर्ष 1952 में निर्वाचित आज़ाद हिंदुस्तान की पहली लोकसभा के दौरान कुल 499 सांसदों में से तक़रीबन 20 प्रतिशत सांसद ने अपने पाँच वर्ष के दौरान सदन के अंदर मात्र एक भाषण या एक भी भाषण नहीं दिया था। वर्ष 2004-09 के दौरान 51 ऐसे लोकसभा सांसद थे जिन्होंने पूरे पाँच वर्ष के कार्यकाल के दौरान सांसद में एक भी प्रश्न नहीं किया। यह संख्या वर्ष 2009 से 2014 के दौरान 61 सांसदों की थी
दूसरी तरफ़ शिक्षा के लिए प्रसिद्ध मैसूर राज्य में 36 प्रतिशत नेता 10वीं कक्षा से अधिक पढे-लिखे नहीं थे। यही कारण था कि राज्य का बजट पेश करते हुए वहाँ के वित्त मंत्री सी सुब्रमणियम ने 14 मार्च 1953 को कहा कि चुकी सदन के ज़्यादातर सदस्य बजट की तकनीकी पक्ष को नहीं समझ पाते हैं इसलिए उन्होंने बजट भाषण आसान व व्यावहारिक भाषा में पेश किया। (स्त्रोत)

1952 की संसद:
इसमें सर्वाधिक चौकाने वाला तथ्य यह था कि भारतीय जन संघ, अखिल भारतीय हिंदू महासभा, अखिल भारतीय राम राज्य परिषद आदि जैसी तथाकथित हिंदुवादी राजनीतिक दलों से वर्ष 1952 के चुनाव में चुने हुए सांसद सर्वाधिक शिक्षित थे। इन हिंदुवादी पार्टियों के वर्ष 1952 में निर्वाचित सभी सांसदों में से 43 प्रतिशत सांसद विदेश से डिग्री हासिल कर चुके थे जबकि कांग्रेस के कुल सांसदों में से मात्र 8 प्रतिशत सांसद ही विदेश से डिग्री हासिल किए हुए थे। इन हिंदुवादी पार्टियों के सभी सांसद कम से कम मैट्रिक तक पढे हुए थे जबकि कांग्रेस के 8 प्रतिशत अर्थात् 30 संसद ऐसे थे जिन्होंने 8वीं कक्षा से अधिक पढ़ाई नहीं किया था। (स्त्रोत)
एक अन्य चौकाने वाला तथ्य यह भी है कि हिंदुवादी पार्टियों के वर्ष 1952 में निर्वाचित सभी सांसदों में से एक भी सांसद धार्मिक संस्थानों से शिक्षित नहीं थे जबकि कांग्रेस के 14 सांसद धार्मिक शिक्षण संस्थानों से शिक्षित थे। यहाँ कि समाजवादी पार्टी के भी एक सांसद धार्मिक शिक्षण संस्थान से शिक्षित थे। (स्त्रोत)

वर्तमान संसद:
उपरोक्त ऐतिहासिक आँकड़ों को वर्तमान स्थिति से तुलना करें तो पता चलता है कि आज 2022 में 72 प्रतिशत लोकसभा सांसद कम से कम स्नातक तक पढे लिखे हैं जबकि यह आँकड़ा वर्ष 1952 में निर्वाचित सांसदों में मात्र 58 प्रतिशत थी। आज़ादी के समय जब संविधान सभा गठित हुई थी और जिस संविधान सभा ने संसद को वर्ष 1952 तक चलाया उसमें स्नातक सदस्यों/सांसदों का अनुपात 67 प्रतिशत था।
हालाँकि हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वर्ष 1951 में हिंदुस्तान की साक्षरता दर मात्र 18.33 प्रतिशत थी जी वर्ष 2011 में बढ़कर 74.04 व 2022 में बढ़कर 77.7 प्रतिशत तक पहुँच चुकी है। इसी तरह वर्ष 1951 में मात्र 0.33 हिंदुस्तानी स्नातक शिक्षण संस्थानो का चेहरा देख पाते थे जबकि वर्ष 2011 में 8.15 प्रतिशत हिंदुस्तानी स्नातक की डिग्री लेकर निकल चुके थे। अर्थात् जिस अनुपात गौर गति से देश साक्षर व स्नातक हुआ है उस अनुपात व गति से हमारी संसद साक्षर नहीं हुई है।
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इस बात को लेकर भी बहुत हल्ला होता है कि वर्ष 1951 में भारतीय संसद यूवा थी जिसमें चालीस व साठ से कम उम्र के सांसदों की संख्या आज की तुलना में कहीं अधिक थी। एक आँकड़े के अनुसार वर्ष 1952 की लोकसभा में 27 प्रतिशत सांसद की उम्र 40 वर्ष से कम थी जबकि वर्ष 2019 में निर्वाचित लोकसभा के सांसदों में से मात्र 12 प्रतिशत सांसदों की ही उम्र 40 वर्ष से कम है।
हालाँकि हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि पिछले 75 वर्षों में हिंदुस्तान कि जीवन प्रत्याशा (लाइफ़ इक्स्पेक्टेंसी) दुगनी हो चुकी है। अर्थात् अगर हिंदुस्तान में लोगों की अधिक उम्र तक ज़िंदा रहने की क्षमता दुगनी हुई है तो फिर सांसदों की उम्र थोड़ी बहुत बढ़ी है तो तो फिर इसमें इतना हल्ला क्यूँ? 1950 के दशक के दौरान भारतीय राजनीति और नौकरशाही में एक बड़ा विवाद भी इसी मुद्दे पर था कि संसद में चुनकर आए ज़्यादातर नेतागणों के पास देश चलाने के लिए उचित समझ और अनुभव नहीं था।

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