पहाड़ में एक कहावत है, “अकरमि को कपाल बुरांस (Buransh) को फूल जैकि वासना नै।” अर्थात् अभागे व्यक्ति की क़िस्मत बुरांस के फूल जैसी होती है जिसमें कोई ख़ुशबू नहीं होती है। एक और कहावत है जो पहाड़ के साथ साथ उत्तर भारत के तक़रीबन सभी मैदानी क्षेत्र में सुनने को मिलता है: ‘ढाक के तीन पात’। गूगल भी आपको बता देगा कि इस मुहावरे का अर्थ होता है, “जिसका कोई महत्व नहीं हो”।
बुरांश (Buransh) और ढाक (पलाश) के फूल से सम्बंधित इन दोनो कहावतों में एक बात समान है कि कहावत गढ़ने वालों ने ढाक और बुरांश के महत्व को नकारा है। ऐसा क्यूँ होता है कि एक फूल जो स्थानीय समाज और संस्कृति में बहुत महत्व रखता है पर कहावतों में उसे बदनाम किया जाता है? इन्हीं सवालों को बीच घूमता ये लेख पढ़िए और परिचर्चा में शामिल हो:
बुरांश (Buransh) सिर्फ़ उत्तराखंड में नहीं बल्कि हिमालय के लगभग सभी हिस्सों के साथ-साथ थाईलैंड और श्रीलंका में भी पाया जाता है। बुरांश उत्तराखंड का यह राजकीय वृक्ष है और नागालैंड का राजकीय फूल है वहीं नेपाल का यह राष्ट्रीय फूल है। इसी तरह पलाश का फूल भी हिंदुस्तान के लगभग सभी हिस्सों के साथ साथ पाकिस्तान से लेकर वियतनाम तक पाए जाते हैं और झारखंड का राजकीय फूल भी है। इतनी विख्यती के बावजूद इन फूलों के प्रति ये कुछ प्रसिद्ध नकारात्मक कहावतें कुछ न कुछ तो इनके इतिहास के प्रति इशारा करती है जो हमें जानने की ज़रूरत है।
“इतिहास ने बुरांश (Buransh) और पलाश (पलाश) दोनो के साथ अन्याय किया है”
बुरांश (Buransh), पहाड़ों का फूल, मार्च से मई तक पूरे उत्तराखंड में खिलने वाला ये फूल वैसे तो अपने लाल रंग में प्रचारित है पर तापमान और ऊँचाई के साथ इनके रंग बदलते हैं। दो हज़ार मीटर से अधिक ऊँचाई की ओर जैसे जैसे आप बढ़ते हैं फूल का रंग पहले गुलाबी और फिर बैंगनी होते होते चार हज़ार मीटर की ऊँचाई पहुँचने से पहले ये सफ़ेद रंग में डूब जाते हैं।
लाल रंग के बुरांश (Buransh) को तो 2017 में चुनाव हारने के बाद हरदा (हरीश रावत) भी तोड़कर उसका विश्लेषण करते हुए अपने उत्तराखंडी और उत्तराखंडी संस्कृति का रक्षक होने का दावा करते हर वर्ष नज़र आ जाते हैं, पर बर्फीली चोटियों पर खिले बैंगनी रंग के बुरांश को तोड़ने की हिमाक़त शायद ही कोई पर्यटक कर पाते हैं। ग़ैर-क़ानूनी है, वन विभाग की नज़र में, बैंगनी बुरांश के फूल को तोड़ना !

बुरांश (Buransh) के फूल के साथ उत्तराखंडी फूलदोई मनाते हैं तो झारखंड के सांथाली पलाश के फूल से बने रंग से बहा पर्व मनाया करते थे। बुरांश और पलाश दोनो फूल मार्च महीने में ही खिलते हैं: होली वाली मार्च, रैली वाली नहीं। दोनो जगह के बच्चे आज भी फूल की जड़ से अक्सर मिठास चूसते नज़र आ ज़ाया करते थे। अब, कोल्ड ड्रिंक कि दौड़ में पेड़ पर चढ़कर एक एक फूल की जड़ से मिठास चूसना कैम्पा और कोला की गटक के सामने कब तक अपनी ख़ैर मनाता। स्थानिए संस्कृति का हिस्सा था इसलिए मारा गया।
बहा पर्व आज भी है और पलाश का फूल भी पर पलाश के फूलों से बना रंग नहीं जिसकी होली खेला करते थे सन्थली। पर पहाड़ों की फूलदोई आज भी है, और फूलदोई का नाच-गान भी। और अब तो फ़ेस्बुक पर फूलदोई का प्रोफ़ायल कवर भी है। पहाड़ के शहरों में बुरांश के नाम से आपको होटेल से लेकर चप्पल की दुकान के नाम तक मिल जाएँगे। कई गढ़वाली और कुमाऊँनी गानो में भी बुरांश (Buransh) का ज़िक्र मिलेगा। बुरांश (Buransh) का जूस तो हर छोटे क़स्बे में मिल जाएँगे आपको, आधे लीटर से लेकर पाँच लीटर की बोतलों में बंद, पहाड़ों का रुआब्ज़ा: थोड़ा खट्टा, ढेर सारा मीठा, इतना लाल की पीने के बाद आपका जीभ लाल कर दे।
लाल ही होता है झारखंड समेत मध्य भारत में मार्च में खिलने वाला पलाश का फूल। पर पलाश के फूल अपना रंग नहीं बदलते हैं, न ऊँचाई बढ़ने पर और न ही जगह बदलने पर और शायद इसीलिए इनको तोड़ने पर पाबंदी भी नहीं है। कठोर शब्दों में कहें तो झारखंड में पलाश के फूल की कोई औक़ात नहीं है। जब सैकड़ों वर्ष पूर्व दिकु (बाहरी) झारखंड के जंगलों में घुसे तो मडुआ, कटहल, कोदो-कूटकी के साथ पलाश को भी बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ा। स्थानीय आदिवासियों की विश्वासों को तोड़ा, उनकी प्रथाओं को मरोड़ा, उनकी संस्कृति में गर्व करने के लिए बहुत कम ही कुछ छोड़।
पलाश का नाम ‘ढाक’ रखा गया और एक कहावत जड़ दी गई: “ढाक के तीन पात”। गूगल भी आपको बता देगा कि इस मुहावरे का अर्थ होता है, “जिसका कोई महत्व नहीं हो, क्यूँकि उसके लिए कोई मेहनत नहीं किया गया है”। जिस तरह मडुआ, कोदो-कुटकि, भट्ट-झाँगोरे आदि महत्व गिनाना समय की बर्बादी है उसी तरह पलाश या बुरांश का भी महत्व गिनाना ‘बेरोज़गारी में आटा गिला करना’ जैसे कहावत से कुछ भी अलग नहीं होगा।
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इन बिना मेहनत के उगे पलाश के बारे में राष्ट्र कवि, टैगोर से लेकर रड्यार्ड किप्लिंग ने खूब लिखा है। उन्होंने तो इस पलाश के फूल की तुलना उज्ज्वल नारंगी लौ से कर दी। बेरोज़गार कवि का बेरोज़गार फूल: सौंदर्यता से पेट नहीं भरता है। और वैसे भी सौंदर्यता तो किसी चीज़ के दुर्लभता में होती है, यहाँ तो पलाश के पेड़ अंग्रेजों के जमाने तक ऐसे फैले थे जैसे पूरे हिंदुस्तान में इस पेड़ के अलावा कोई और दूसरा पेड़ हो ही नहीं। केरल से लेकर पंजाब तक और इधर बंगाल से लेकर गुजरात तक बस पलाश ही पलाश।
पलाश एक पेड़ लगा दो तो अगली पीढ़ी आते आते उसके जड़ से कम से कम दस पेड़ अपने चरो तरफ़ दस मीटर तक फैल चुका होगा। दस पेड़ ज़मीन के ऊपर होंगे तो दस पेड़ ज़मीन के भीतर। जब मार्च में पलाश का फूल खिलता है तो पलाश के पेड़ पर एक भी पत्ते (पात) नहीं दिखेंगे आपको। जुलाई के बाद सावन के साथ ढाक के नए पात उगते हैं। अर्थात् ढाक रहेगा तो पात नहीं और पात रहेगा तो ढाक नहीं। मार्च आते आते खजूर की ताड़ी भी ख़त्म हो जाती है और चावल से बनने वाला हड़िया (सन्थलियों का बियर), महुआ को सूखने में कुछ समय तो अभी और लगेगा। ढाक के तीन पात (पत्ते) का चुक्का (बर्तन) बनाकर लोग उसमें ताड़ी, हंडिया और महुआ का नशा करते है।
पलाश (Buransh) का पेड़ बाज़ार के लिए न फल देती थी और ना ही मज़बूत लकड़ी जो भूमिहार ज़मींदारों के आरा मशीनों में कट सके, या अंग्रेजों की पटरियों पर बिछ सके। वो तो सिर्फ़ जल सकती थी, आदिवासियों के चूल्हे में, और ठिठुरती ठंड में। जला दिया गया ऐसे पलाश को जो सिर्फ़ जल सकती थी या जला सकती थी अंग्रेजों और भूमिहार ज़मींदारों को कि, “ये वनवासी इतने खिले-खिले क्यूँ रहते हैं।”
झारखंड के आदिवासी (‘जंगली’) आज भी जंगली हैं और हम उत्तराखंडी। झारखंड में लोग पलायन करने आते थे, उत्तराखंड में सभी पलायन करने जाते हैं, वहाँ जंगलियों (आदिवासियों) का दवदवा बढ़ रहा है यहाँ मैदानों का। वहाँ का पलाश आज भी सिर्फ़ पेड़ पर ही खिलता है और यहाँ का बुरांश (Buransh) दून के किचन से लेकर ड्रॉइंग रूम तक पहुँच चुका है। समझ में नहीं आता कि हमने बुरांश को प्रोत्साहित किया है या क़ैद। पर्यटन की नगरी में पर्यटक का क़ैदी, बुरांश (Buransh)।