पंखा—वाला या छतरी वाला का इतिहास हिंदुस्तान में काफ़ी पुराना है लेकिन मध्य काल तक यह सेवा केवल राजा व प्रमुख हिंदू देवताओं तक ही सीमित हुआ करता था। मुग़ल बादशाह जहांगीर ने दरगाहों पर चादर के साथ मंदिरों में पंखा चढ़ाने की परम्परा की शुरुआत दिल्ली के योगमाया मंदिर से शुरू किया था। जब बाबर हिंदुस्तान में आए तो उन्होंने अपने बाबरनामा में लिखा कि हिंदुस्तान में उन्हें तीन चीजों से सर्वाधिक परेशानी हुई और वो तीन चीज़ें थे: हिंदुस्तान की गर्मी, तेज हवाएँ और धूल भरी आँधी।


जब ब्रिटिश हिंदुस्तान में आए तब भी उन्हें हिंदुस्तान की गर्मी और उमस से परेशानी हुई। उपनिवेशिक काल के दौरान तो ब्रिटिश समेत अन्य उपनिवेशकों ने तो हिंदुस्तान समेत अन्य गर्म उपनिवेशों में गर्मी से निजात पाने के लिए अलग-अलग तरकीब इजात किया। इन तरकीबों में से देश के विभिन्न हिस्सों में हिल स्टेशन, ग्रीष्मकालीन प्रशासनिक केंद्र, ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने के अलावा पंखा-वाला (नौकर) की एक नई जमात हर शहर से गाँव तक फैलने लगी।



उपनिवेशिक पंखा—वाला
ब्रिटिश काल के दौरान पंखा—वाला और छतरी वाला को नौकरी पर रखने की प्रथा आम हो गई। अब छोटे-बड़े ब्रिटिश अफ़सरों के अलावा भारतीय ज़मींदार और कुलीन वर्ग भी व्यक्तिगत तौर पर पंखा वाला को नौकरी पर रखने लगे थे। मुग़ल काल की तुलना में ब्रिटिश ज़मींदार व ऑफ़िसर अधिक कुलीन हो चुके थे। ब्रिटिश ऑफ़िसर को दुनियाँ में सर्वाधिक वेतन दिया जाता था। इस दौरान ब्रिटिश नौकरशाहों के सोने, खाने, काम करने, और पढ़ने के कमरे से लेकर उनके बाथरूम तक पंखे लगे होते थे।


ब्रिटिश काल के दौरान पंखा की उपयोगिता सिर्फ़ गर्मी दूर करने तक सीमित नहीं था। एक ब्रिटिश लेखक ने तो यहाँ तक दावा कर दिया कि पंखा की मुख्य उपयोगिता मक्खी-मच्छर भगाना होता था न कि गर्मी से निजात दिलाना क्यूँकि भारतीय गर्मी से राहत के लिए पंखा काफ़ी नहीं था।


ब्रिटिश काल के दौरान हिंदुस्तान में पंखा का भी स्वरूप बदला जिसके कई कारण थे। पहले पंखा वाला हमेशा अपने मालिक के ठीक दाएँ-बाएँ या पीछे खड़े होकर एक डंडे में लगा पंखा झलता था लेकिन अब पंखा वाला और उसके मालिक के बीच दूरियाँ बढ़ने लगी थी। चित्र में जैसा देख सकते हैं कि ब्रिटिश कोर्ट रूम में पंखा वाला लोगों के साथ नीचे बैठा है या फिर दूसरी चित्र में कमरे के बाहर बैठा है जहां से एक रस्सी के सहारे वो पंखा झाल रहा है। बदलाव की इस प्रक्रिया के दौरान पंखे का डिज़ाइन भी बदला।


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ज़्यादातर मामलों में बहरे (बधिर) पंखा वाला को अधिक प्राथमिकता दिया जाता था ताकि वो अपने मालिक की बात को सुन नहीं पाए। पंखा वाला को कमरे से बाहर रहकर पंखा झलना पड़ता था ताकि वो अपने मालिक के विभिन्न निजिता में ख़लल नहीं दे सके, उनकी बात नहीं सुन सके, और ख़ासकर रात में मालिक को सोते समय देख नहीं सके।

पंखा—वाला और मालिक के बीच यह बढ़ती दूरी ब्रिटिश काल के दौरान बढ़ती नस्लवाद का बढ़ता प्रभाव जा प्रतीक था। पंखा—वाला नौकरों की जमात सिर्फ़ हिंदुस्तान तक सीमित नहीं थी बल्कि दक्षिण ऐशिया समेत अफ़्रीका और दक्षिण अमेरिका में भी इसका प्रचलन लगातार बढ़ा। इस दौरान इन पंखों को बनाकर बाज़ार में भी बेचा गया।

वैश्विक परिदृश्य:
पंखा—वाला के साथ हिंदुस्तान समेत विश्व के लगभग सभी उपनिवेशों में पंखा—वाला को आलसी समझा जाता था और उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाता था। अक्सर ये पंखा—वाला गरीब, अनपढ़ और निम्न जाति से सम्बंध रखते थे जबकि मध्य काल तक पंखा—वाला मुख्यतः उच्च जाति से सम्बंध रखते थे। ब्रिटिश काल के दौरान इन पंखा वालों को दिन-रात काम करना पड़ता था जिसके दौरान नींद की झपकी लेते हुए पकड़े जाने पर अक्सर इनकी पिटाई कर दी जाती थी। कई बार दुर्घटना से पंखे टूटकर गिर जाते थे और सजा पंखा-वाला को मिलती थी।


यूरोप में ऐसे पंखे का अविष्कार भी किया गया जो व्यक्ति स्वयं बिना हाथ लगाए इस्तेमाल कर पता था। 19वीं सदी के अंत तक ब्रिटिश ने मिट्टी के तेल से चलने वाला पंखे का इजात कर लिया था। वर्ष 1886 में विद्युत पंखे की खोज के बाद बिजली से चलने वाले पंखों का प्रचलन धीरे-धीरे बढ़ने लगा और पंखा-वाला की नौकरी जाती रही। हालाँकि हाथ से चलने वाले पंखों का प्रचलन हिंदुस्तान के ग्रामीण इलाक़ों में पिछले कुछ वर्षों तक जारी रहा जब तक की गाँव-गाँव तक बिजली नहीं पहुँच पाई।

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