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पंखा—वाला, मुग़ल, गोरे साहब और उनकी गर्मी: चित्रों में कहानी

पंखा—वाला या छतरी वाला का इतिहास हिंदुस्तान में काफ़ी पुराना है लेकिन मध्य काल तक यह सेवा केवल राजा व प्रमुख हिंदू देवताओं तक ही सीमित हुआ करता था। मुग़ल बादशाह जहांगीर ने दरगाहों पर चादर के साथ मंदिरों में पंखा चढ़ाने की परम्परा की शुरुआत दिल्ली के योगमाया मंदिर से शुरू किया था। जब बाबर हिंदुस्तान में आए तो उन्होंने अपने बाबरनामा में लिखा कि हिंदुस्तान में उन्हें तीन चीजों से सर्वाधिक परेशानी हुई और वो तीन चीज़ें थे: हिंदुस्तान की गर्मी, तेज हवाएँ और धूल भरी आँधी। 

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चित्र: हिंदुस्तान का पारम्परिक गर्मी निजात छाता जो बारिश में भी इस्तेमाल होता था। स्त्रोत: Les Hindoûs, v. 01 by F. Balthazar Solvyns
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चित्र: भारतीय पारम्परिक पंखा और पंखा—वाला जिसे बर्बूरदर भी कहा जाता था। यह पंखा ताड़ के पत्ते का बना होता था। स्त्रोत: Asiatic Costumes Ackermann London, 1828

जब ब्रिटिश हिंदुस्तान में आए तब भी उन्हें हिंदुस्तान की गर्मी और उमस से परेशानी हुई। उपनिवेशिक काल के दौरान तो ब्रिटिश समेत अन्य उपनिवेशकों ने तो हिंदुस्तान समेत अन्य गर्म उपनिवेशों में गर्मी से निजात पाने के लिए अलग-अलग तरकीब इजात किया। इन तरकीबों में से देश के विभिन्न हिस्सों में हिल स्टेशन, ग्रीष्मकालीन प्रशासनिक केंद्र, ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने के अलावा पंखा-वाला (नौकर) की एक नई जमात हर शहर से गाँव तक फैलने लगी। 

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चित्र: यूरोप के कुलीन वर्ग को पारम्परिक पंखा झलता भारतीय पंखा—वाला
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चित्र: ब्रिटिश ऑफ़िसर को पारम्परिक पंखा झलता भारतीय पंखा वाला
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चित्र: ब्रिटिश ऑफ़िसर को पारम्परिक पंखा झलता भारतीय पंखा—वाला

उपनिवेशिक पंखा—वाला

ब्रिटिश काल के दौरान पंखा—वाला और छतरी वाला को नौकरी पर रखने की प्रथा आम हो गई। अब छोटे-बड़े ब्रिटिश अफ़सरों के अलावा भारतीय ज़मींदार और कुलीन वर्ग भी व्यक्तिगत तौर पर पंखा वाला को नौकरी पर रखने लगे थे। मुग़ल काल की तुलना में ब्रिटिश ज़मींदार व ऑफ़िसर अधिक कुलीन हो चुके थे। ब्रिटिश ऑफ़िसर को दुनियाँ में सर्वाधिक वेतन दिया जाता था। इस दौरान ब्रिटिश नौकरशाहों के सोने, खाने, काम करने, और पढ़ने के कमरे से लेकर उनके बाथरूम तक पंखे लगे होते थे।

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चित्र: घर के बाहर पंखे की डोरी हाथ में लिए एक भारतीय पंखा—वाला।
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चित्र: कमरे के अंदर लगे पंखे को खिंचता तीन पंखा—वाला। स्त्रोत: Royal Society for Asian Affairs, London/Bridgeman, 1900

ब्रिटिश काल के दौरान पंखा की उपयोगिता सिर्फ़ गर्मी दूर करने तक सीमित नहीं था। एक ब्रिटिश लेखक ने तो यहाँ तक दावा कर दिया कि पंखा की मुख्य उपयोगिता मक्खी-मच्छर भगाना होता था न कि गर्मी से निजात दिलाना क्यूँकि भारतीय गर्मी से राहत के लिए पंखा काफ़ी नहीं था। 

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 स्त्रोत: Ellsworth Huntington, The Human Habitat, Page 145, CC BY 4.0 via Wikimedia Commons
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चित्र: थककर झपकी लेता एक भारतीय पंखा—वाला। स्त्रोत: Higginbotham & Co. Madras & Banglore, N. 64

ब्रिटिश काल के दौरान हिंदुस्तान में पंखा का भी स्वरूप बदला जिसके कई कारण थे। पहले पंखा वाला हमेशा अपने मालिक के ठीक दाएँ-बाएँ या पीछे खड़े होकर एक डंडे में लगा पंखा झलता था लेकिन अब पंखा वाला और उसके मालिक के बीच दूरियाँ बढ़ने लगी थी। चित्र में जैसा देख सकते हैं कि ब्रिटिश कोर्ट रूम में पंखा वाला लोगों के साथ नीचे बैठा है या फिर दूसरी चित्र में कमरे के बाहर बैठा है जहां से एक रस्सी के सहारे वो पंखा झाल रहा है। बदलाव की इस प्रक्रिया के दौरान पंखे का डिज़ाइन भी बदला।

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चित्र: वर्ष 1895 में फ़्रांसीसी कॉलोनी कारिकल के न्यायालय के बीच में फ़र्श पर बैठा पंखा झलता एक पंखा—वाला। स्त्रोत: Wikimedia Commons
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चित्र: नए डिज़ाइन का यह पंखा अक्सर टूटकर गिर ज़ाया करता था। स्त्रोत: Harpers Weekly, P. 885, 30 Oct 1875,

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ज़्यादातर मामलों में बहरे (बधिर) पंखा वाला को अधिक प्राथमिकता दिया जाता था ताकि वो अपने मालिक की बात को सुन नहीं पाए। पंखा वाला को कमरे से बाहर रहकर पंखा झलना पड़ता था ताकि वो अपने मालिक के विभिन्न निजिता में ख़लल नहीं दे सके, उनकी बात नहीं सुन सके, और ख़ासकर रात में मालिक को सोते समय देख नहीं सके। 

पंखा—वाला की पिटाई।
चित्र: सोते हुए पाए जाने पर एक पंखा—वाला की पिटाई करते लोग। स्त्रोत: 21 फ़रवरी 1891, The Graphic पत्रिका, P 217

पंखा—वाला और मालिक के बीच यह बढ़ती दूरी ब्रिटिश काल के दौरान बढ़ती नस्लवाद का बढ़ता प्रभाव जा प्रतीक था। पंखा—वाला नौकरों की जमात सिर्फ़ हिंदुस्तान तक सीमित नहीं थी बल्कि दक्षिण ऐशिया समेत अफ़्रीका और दक्षिण अमेरिका में भी इसका प्रचलन लगातार बढ़ा। इस दौरान इन पंखों को बनाकर बाज़ार में भी बेचा गया।

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चित्र: Bergtheill & Young Ltd द्वारा Bandy पंखा का इस्तहार, 1909

वैश्विक परिदृश्य:

पंखा—वाला के साथ हिंदुस्तान समेत विश्व के लगभग सभी उपनिवेशों में पंखा—वाला को आलसी समझा जाता था और उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाता था। अक्सर ये पंखा—वाला गरीब, अनपढ़ और निम्न जाति से सम्बंध रखते थे जबकि मध्य काल तक पंखा—वाला मुख्यतः उच्च जाति से सम्बंध रखते थे। ब्रिटिश काल के दौरान इन पंखा वालों को दिन-रात काम करना पड़ता था जिसके दौरान नींद की झपकी लेते हुए पकड़े जाने पर अक्सर इनकी पिटाई कर दी जाती थी। कई बार दुर्घटना से पंखे टूटकर गिर जाते थे और सजा पंखा-वाला को मिलती थी। 

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चित्र: दक्षिण अमेरिका में अस्वेत पंखा—वाला, स्त्रोत: De Agostini, Biblioteca Ambrosiana
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चित्र: पैरों से चलाने वाला पंखा।

यूरोप में ऐसे पंखे का अविष्कार भी किया गया जो व्यक्ति स्वयं बिना हाथ लगाए इस्तेमाल कर पता था। 19वीं सदी के अंत तक ब्रिटिश ने मिट्टी के तेल से चलने वाला पंखे का इजात कर लिया था। वर्ष 1886 में विद्युत पंखे की खोज के बाद बिजली से चलने वाले पंखों का प्रचलन धीरे-धीरे बढ़ने लगा और पंखा-वाला की नौकरी जाती रही। हालाँकि हाथ से चलने वाले पंखों का प्रचलन हिंदुस्तान के ग्रामीण इलाक़ों में पिछले कुछ वर्षों तक जारी रहा जब तक की गाँव-गाँव तक बिजली नहीं पहुँच पाई। 

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चित्र: मिट्टी के तेल से चलने Jost पंखा का इस्तहार, वर्ष : 1900

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Sweety Tindde
Sweety Tinddehttp://huntthehaunted.com
Sweety Tindde works with Azim Premji Foundation as a 'Resource Person' in Srinagar Garhwal.
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