बिहार जातीय गणन 2022-23 के अनुसार बिहार में संख्यबल में यादव बिहार की सबसे बड़ी जाति है। मतलब बिहार में सबसे ज़्यादा वोट यादव का है। बिहार की कुल जनसंख्या का 14.27 प्रतिशत आबादी यादवों की है जबकी दूसरे नम्बर पर दुसाध/धारी जाति का जनसंख्या बिहार की कुल जनसंख्या का मात्र 5.31 प्रतिशत है। और तीसरी सबसे बड़ी जाति चमार की है जिनकी आबादी बिहार की कुल आबादी का 5.25 प्रतिशत है। यानी कि बिहार कि दूसरी और तीसरी सबसे बड़ी जाति मिलकर (10.56 %) भी संख्याबल में यादव के बराबर नहीं हो पाती है।
आर्थिक और शैक्षणिक विकास:
दुसाध और चमार दोनो महादलित समाज से आते हैं लेकिन उसके बावजूद इन दोनो समाज में पलायन यदुवंशी समाज से कम है। यदुवंशी समाज में पलायन का अनुपात 4.32% है जबकि चमार में 4.29% और दुसाध में 3.92% है। ग़रीबी चमार और दुसाध दोनो में यादव से ज़्यादा है लेकिन बहुत ज़्यादा का अंतर नहीं है। यादवों में ग़रीबों का अनुपात 35.8% है जबकि दुसाध में 39.36% और चमार में 42.06% जो कि बहुत ज़्यादा का अंतर नहीं है।
इसी तरह से पक्का मकान वाले परिवार का अनपुआत हो या उच्च शिक्षा पाने वाले लोगों का अनुपात हो यादव चमार और दुसाध दोनो से बेहतर तो हैं लेकिन इनके बीच विकास के इन पैमानों का अंतर बहुत कम है जो कि आप तालिका में देख सकते हैं।
चमार और दुसाध जैसे दलित समाज तो विकास के ज़्यादातर पैमानों में यादव से पीछे हैं लेकिन दलित समाज के अंदर ही पासी, धोबी और हलालखोर जैसी कई ऐसी दलित जातियाँ है बिहार में जो संख्याबल या वोटरों की संख्या के मामले में तो यादवों के सामने चींटी के बराबर हैं लेकिन विकास के कई पैमाने में धोबी, हलालख़ोर और पासी जाति यादवों से कहीं आगे हैं। उदाहरण के लिए पलायन करने के मामले में यादव का अनुपात पासी और यहाँ तक कि मुसहर से भी अधिक है।
ग़रीबी दर में धोबी का अनुपात यादव से कम है। यानी कि यदुवंशियों से कम ग़रीबी धोबी जाति में है। पासी और धोबी समाज में स्नातक या उससे अधिक की उच्च शिक्षा ग्रहण करने वालों का अनुपात यादवों से बेहतर है। धोबी के पास यादव से अधिक अनुपात में पक्का मकान भी है, लेकिन दुपहिया या चार-पहिया वाहन रखने के मामले में यादव पासी, मुसहर, धोबी, पिछड़ा, अति-पिछड़ा सबसे आगे हैं, मतलब दबंगई में यदुवंशी आगे है।

यादव जाति के लोगों का विकास के अलग अलग मनकों में अनुपात और भी अधिक ख़राब नज़र आती है जब यादव जाति के विकास मनकों की तुलना अति-पिछड़ों और पिछड़े समाज के अन्य जातियों से करते हैं। उदाहरण के लिए यदुवंशी समाज के लोग विकास के सभी मनकों में कुर्मी, कुशवाहा, बानियाँ और तेली जाति से भी पीछे हैं।
उदाहरण के लिए स्नातक या स्नातक से अधिक शिक्षित अनुपात के मामले में यादवों का अनुपात मात्र 7.63% है जबकि कुर्मी का 15.84% है, बानियाँ का 14.7%, कुशवाहा का 10.27%, और तेली जाति में भी 10.77 प्रतिशत लोग कम से कम स्नातक तक शिक्षित है जबकि बिहार का औसत अनुपात मात्र सात प्रतिशत है। यही हाल पक्का मकान वाले परिवारों का है, ग़रीबी का दर हो या फिर दो पहिया या चार पहिया वाहन रखने का मामला हो, कुर्मी, कुशवाहा, बनिया तेली सब यादव से आगे हैं।
1931 बनाम 2023: बिहार जातीय गणना
सवाल सिर्फ़ ये नहीं है कि यदुवंशी समाज के लोग आज आर्थिक और शैक्षणिक मामले में लगभग सभी OBC, ज़्यादातर अति-पिछड़ा और कई दलित जातियों से अधिक पिछड़ा है, सवाल ये भी है कि आज से नौ दशक पहले साल 1931 की जनगणना के समय यदुवंशी शिक्षा के मामले में जिन जातियों से आगे था आज यानी कि 2023 में उनमें से कई जातियों से यदुवंशी पीछे हो गए है।
उदाहरण के लिए साल 1931 में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के मामले में यदुवंशी समाज के लोग धोबी जैसी दलित जाति से लगभग चार गुना आगे थे लेकिन आज स्नातक या उससे अधिक तक की पढ़ाई करने वालों के अनुपात के मामले में यादव में मात्रा 7.63 प्रतिशत लग हैं जबकी धोबी जाति के 10.70% लोग स्नातक या उससे अधिक तक शिक्षित हैं। इसी तरह से पासी जाति के लोग भी यादव से अधिक अनुपात में स्नातक या उससे अधिक तक शिक्षित हैं। पासी जाति में 8.38 % लोग स्नातक या उससे अधिक शिक्षित हैं जो कि यादव के 7.63 प्रतिशत से ज़्यादा है।
हालाँकि चमार जाति में उच्च शिक्षा अभी भी यादव जाति से कम है लेकिन 1931 की तुलना में आज 2023 में पिछले 92 वरसों के दौरान चमार जाति ने उच्च शिक्षा के मामले में यादव से कहीं अधिक तेज़ गति से विकास किया है। इसी तरह से दुसाध, और मल्लाह ने भी यादवों की तुलना में शिक्षा में मामले में अधिक तेज़ी से विकास किया है जो कि डेटा टेबल में साफ दिखता है। लेकिन छोटी छोटी जातियों ने शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र में यह मुक़ाम बिना राजनीतिक प्रतिनिधित्व के हासिल किया है।
राजनीतिक प्रतिनिधित्व:
जिस दलित समाज की जनसंख्या बिहार की कुल जनसंख्या का 19.65 प्रतिशत है और जिसके पास 38 आरक्षित सीट होने के बावजूद कुल विधायकों की संख्या मात्र 39 है। जबकि दूसरी तरफ़ 14.7 प्रतिशत जनसंख्या वाले यदुवंशी समाज के लोगों का बिहार में 52 विधायक है और भी बिना किसी आरक्षण के।
साल 2020 में सम्पन्न हुए बिहार विधानसभा चुनाव में बिहार के कुल 243 निर्वाचित विधायकों में 52 यदुवंशी समाज से थे, जबकि कुर्मी जाति से मात्र 9 और कुशवाहा जाति से मात्र 16 विधायक थे। यादव के 14.7 प्रतिशत की तुलना में कुशवाहा के 4.1% और कुर्मी का बिहार में जनसंख्या अनुपात 2.87% था। वहीं दूसरी तरफ़ बानियाँ जाति का बिहार की जनसंख्या में अनुपात मात्र 2.32% है, यानी की कुर्मी और कुशवाहा दोनो से कम है लेकिन विधायकों की संख्या के मामले में बानियाँ कुर्मी और कुशवाहा दोनो से आगे हैं। बिहार में कुल 24 बानियाँ विधायक है।
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अति-पिछड़ों में सर्वाधिक विकसित जाति माने जाने वाली तेली समाज का जनसंख्या अनुपात 2.81 प्रतिशत है जो कि कुर्मी और बानियाँ दोनो के जनसंख्या अनुपात के लगभग बराबर है लेकिन पिछले चुनाव में तेली समाज मात्र 20 सीटों पर ही चुनाव लड़ने का आकांक्षा पाली थी।
जातिगत विधायकों की संख्या देखे तो सबसे कम विधायक कायस्थ जाति से मात्र तीन हैं लेकिन बिहार का सबसे विकसित जाति कायस्थ ही है। स्वर्णों में कायस्थ के बाद ब्राह्मण के 12 विधायक हैं भुमिहार के 21 और राजपूत के 28 जबकि विकास के विभिन्न पैमानों पर देखे तो इन तीनो स्वर्ण जातियों में सबसे अधिक विकसित ब्राह्मण है, उसके बाद भूमिहार और सबसे नीचे राजपूत। मतलब जो राजपूत सभी स्वर्णों में से सबसे ज़्यादा अविकसित हैं उनके सबसे ज़्यादा विधायक है और जो कायस्थ सर्वाधिक विकसित है उनके पास सबसे कम विधायक है।
यादव किसके हैं?
कहने का मतलब यह है कि राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिलने से ज़रूरी नहीं है कि उक्त समाज का विकास भी हो ही जाता है। अगर ये बात बिहार के यादवों को समझ आ गई कि बिहार मे पिछले कुछ वर्षों से सर्वाधिक राजनीतिक प्रतिनिधित्व यादवों को मिलने के बावजूद यादव आज सर्वाधिक पिछड़ा OBC जाति है तो सम्भवतः लालू यादव और RJD के लिए बिहार जातीय गणना भस्मासुर साबित हो सकती है।
अगर यदुवंशी समाज ये समझ जाएगा कि लालू यादव के या राबड़ी देवी के मुख्यमंत्री बनने या फिर अधिक संख्या में यादव विधायक या सांसद बनने से उन्हें राजनीतिक प्रतिनिधित्व तो मिल गया लेकिन शिक्षा, रोज़गार, पक्के मकान, घोड़ा-गाड़ी आदि में यादव जाति के लोग उन OBC और यहाँ तक अति-पछाड़ा और कुछ दलित जातियों तक से भी पीछे छूट गए हैं तो बिहार जातीय गणना भस्मासुर साबित हो सकती है।
तो क्या भाजपा द्वारा यदुवंशी समाज के लोगों को भाजपा के साथ जोड़ने के प्रयास में बिहार जातिगत गणना 2022-23 राजद से अधिक भाजपा को लाभ देने वाला है। कम से कम आँकड़े तो यहीं कहते हैं कि अगर यदुवंशी समाज के लोग तार्किक रूप से सोचें और अपने यदुवंशी समाज के विकास के बारे में सोचे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि इतना लम्बा समय तक बिहार की राजनीति में यादवों का प्रभुत्व क़ायम होने के बावजूद यादव आज आर्थिक, या शैक्षणिक रूप से सर्वाधिक पिछड़े OBC जातियों में से एक है।
अगर यदुवंशी समाज के वोट पर लालू परिवार अपना जन्मजात अधिकार समझती है तो उन्हें 2005 और 2010 का बिहार विधानसभा चुनाव को याद रखना चाहिए जब आधे से अधिक यदुवंशी समाज के लोगों ने नीतीश कुमार की सरकार को वोट दिया था। इसलिए यदुवंशी समाज के नेताओं को भी यह समझना पड़ेगा कि यदुवंशी समाज के वोटर एक सीमा तक ही अपने आर्थिक और शैक्षणिक विकास को दरकीनार करके यादव जातीय पहचान के नाम पर वोट करते हैं लेकिन उस सीमा के बाद यदुवंशी समाज के आम वोटर अपनी यादव जातीय पहचान के परे भी वोट करते हैं।

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