बिहार जातिगत जनगणना 2022-23 के ऊपर पूरा देश दो हिस्सों में बट गया है। समाज और राजनीति का एक पक्ष इस जातीय गणना को देश के लिए विभाजनकारी कदम बता रहा है तो दूसरा पक्ष इस गणना को क्रांतिकारी कदम बता रहा है। इसी तरह समाज का एक पक्ष इस गणना को पूरी तरह फ़र्ज़ी बता रहा है तो दूसरा पक्ष इस शत प्रतिशत शुद्ध बता रहा है। बिहार जातिगत जनगणना के ऊपर हो रही बहस के इस ध्रुवीकरण के बीच इस रिपोर्ट की निष्पक्ष समीक्षा मुश्किल ही हो पा रही है। इस लेख में बिहार जातिगत जनगणना रिपोर्ट के दस कमियों के बारे में बताएँगे तो जिसे सुधारा जा सकता है।
बिहार जातिगत जनगणना की पहली कमी:
बिहार जातिगत जनगणना में ग़रीबी की गणना का आधार सिर्फ़ मासिक आय को रखा गया है जबकि ग़रीबी को सिर्फ़ मासिक आय तक सीमित नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के लिए भारत सरकार जब BPL यानी की ग़रीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों की गणना करती है तो उसमें मासिक आय के अलावा चल और अचल दोनो तरह की सम्पत्ति के आधार पर ग़रीबी की गणना होती है।
उदाहरण के लिए परिवार के पास पक्का का मकान है या कच्चा का, भूमि-हीनता, पशु-धन, मोटर-वाहन आदि सभी का समग्र रूप से गरीब परिवारों की गणना करने में ध्यान रखा जाता है। अब तो बहु-आयामी ग़रीबी की गणना में शिक्षा, स्वास्थ्य, लिंग विषमता आदि मनकों को भी ध्यान रखा जाता है लेकिन बिहार सरकार ने ग़रीबी की गणना सिर्फ़ मासिक आय के आधार पर कर दिया है। इस तरह से बिहार जातिगत जनगणना की रिपोर्ट में ग़रीबी की गणना बहुत ज़्यादा त्रुटिपूर्ण है।
दूसरी कमी:
बिहार जातिगत जनगणना 2022-23 की रिपोर्ट में परिवारों की भूमि स्वामित्व से सम्बंधित गणना को प्रकाशित नहीं की गई है। हालाँकि जब बिहार में यह जातीय गणना हो रही थी तब गणना के दौरान गणना कर्मियों ने 15वें और 17वें सवाल के रूप में परिवार की कुल कृषि योग्य भूमि और आवासीय भूमि का सवाल किया था और ये दोनो सवाल करने के बाद ही सभी स्त्रोतों से परिवार की मासिक आय का 17वाँ सवाल पूछा गया था लेकिन जब रिपोर्ट लिखी गई तो भूमि स्वामित्व के सवाल से संग्रहित आँकड़ों और जानकारियों को रिपोर्ट में शामिल नहीं किया गया।
बिहार सरकार ने ऐसा क्यूँ किया ये तो बिहार सरकार ही बता सकती है लेकिन हम सवाल ज़रूर कर सकते हैं कि आख़िर भूमि स्वामित्व से सम्बंधित आँकड़ों को छुपाया क्यूँ जा रहा है? क्या ऐसा इसलिए किया गया ताकि बिहार में सबसे ज़्यादा भूमि स्वामित्व वाली जाति समझे जाने वाली भुमिहार जाति को गरीब दिखाया जा सके?
इसी तरह से ग़रीबी की गणना करते समय पशु स्वामित्व के सवाल को तो पूरी तरह गौण कर दिया गया।बिहार जातिगत जनगणना के दौरान भूमि का सवाल तो पूछा गया लेकिन उसे ग़रीबी की गणना में शामिल नहीं किया गया लेकिन गणना के दौरान पशु धन से सम्बंधित तो कोई सवाल किया ही नहीं गया। क्या ये इसलिए किया गया ताकि पशुओं से सर्वाधिक जीविका कमाने वाले यादव समाज के लोगों को गरीब दिखाया जा सके?
तीसरी कमी:
बिहार जातिगत जनगणना रिपोर्ट में ये तो बताया गया है कि किस जाति में कितना प्रतिशत लोग सरकारी नौकरी करते हैं या अलग अलग तरह का रोज़गार करते हैं लेकिन ये नहीं बताया गया है कि बिहार के विभिन्न संसाधनों पर किस जाति का कितना हिस्सेदारी है।
मतलब कि ये तो बता दिया गया कि किसी ख़ास जाति में सौ में से 5 या दस लोगों के पास सरकारी नौकरी है लेकिन यह नहीं बताया गया है कि प्रति एक सौ नौकरियों में किस जाति के कितने लोगों को नौकरी मिली है। हालाँकि इस रिपोर्ट में दिए गए आँकड़ों को तोडमोड कर गणना करने पर यह पता चल जाता है कि प्रति एक सौ नौकरियों में किस जाति के कितने लोगों को नौकरी मिली है लेकिन आम आदमी के लिए इस तरह की गणना करना सम्भव नहीं है।
चौथी कमी:
ऐसा लगता है कि बिहार जातिगत जनगणना रिपोर्ट को पेज गिनकर बनाया गया है। रिपोर्ट को थोड़ा भारी-भरकम मोटा दिखाने के लिए मोटे पेज का इस्तेमाल किया गया, फिर पेज की संख्या को बढ़ाने के लिए ऐसी आँकड़े जिन्हें एक ही पेज पर दिया जा सकता था उसे तीन तीन पेज पर दिया गया है।
उदाहरण के लिए इस रिपोर्ट के शुरुआती लगभग 70 पेज तक एक पेज पर अधिकतम नौ जाति का विवरण दिया गया है लेकिन बाद के एक एक पेज पर बीस बीस जातियों का विवरण है। जबकि दूसरी तरफ़ कई ऐसी महत्वपूर्ण जानकारियों को इस रिपोर्ट का हिस्सा नहीं बनया गया जिसे इस रिपोर्ट का हिस्सा होना ज़रूरी था।

पाँचवीं कमी:
भारत सरकार या केंद्र सरकार की किसी भी सर्वे या जनगणना रिपोर्ट में गणना किस विधि के अनुसार किया गया, सर्वे के दौरान क्या क्या सवाल पूछे गए थे, इन सभी का विवरण रिपोर्ट में ही लिखा जाता है लेकिन बिहार जातिगत जनगणना रिपोर्ट में इनमे से कोई भी जानकारी को रिपोर्ट का हिस्सा नहीं बनाया गया है।
छठी कमी:
बिहार जातीय गणना रिपोर्ट में जातीय गणना में राजनीति प्रतिनिधित्व की गणना नहीं की गई जो कि रिपोर्ट की एक महत्वपूर्ण कमी है। इस सर्वे के दौरान पूछे गए सवालों में एक सवाल ज़रूर पूछा जाना चाहिए था कि क्या उक्त व्यक्ति ने या उक्त व्यक्ति के परिवार से किसी ने कभी कोई पंचायत, नगर निकाय, लोकसभा, विधानसभा या विधान परिषद का चुनाव लड़ा या जीता है?
इस रिपोर्ट में बिहार के भीतर और बिहार के बाहर पलायन करने वाले लोगों की जनसंख्या के साथ साथ किन कारणों से वो पलायन कर रहे हैं ये तो विस्तृत तौर पर बताया गया है लेकिन वो लोग जो देश के अलग अलग राज्यों से आकर बिहार में पलायन करके स्थाई या अस्थाई रूप से बिहार में रह रहे हैं उनके बारे में इस रिपोर्ट में कोई जानकारी नहीं है। भारतीय जनगणना 2011 के अनुसार बिहार में देश के अलग अलग राज्यों से बिहार आकर रहने वाले लोगों की जनसंख्या दस लाख के आसपास है।
सातवीं कमी:
बिहार जातिगत जनगणना रिपोर्ट में इससे पहले बिहार में हुए जातिगत जनगणना 1931 के आँकड़ों से कोई तुलना नहीं की गई है जबकि जब ब्रिटिश सरकार 1931 से पहले हिंदुस्तान में जनगणना करवाती थी तो हमेशा पहले के जनगणना के साथ एक तुलनात्मक आँकड़ों को भी नए रिपोर्ट में शामिल करती थी।
आठवीं कमी:
भारत में जितनी भी गणना या जनगणना होती है उसमें महिला और पुरुष के आँकड़ों को एक साथ भी दिखाया जाता है और अलग अलग भी दिखाया जाता है लेकिन बिहार जातिगत जनगणना में महिलाओं के आँकड़ों को अलग से नहीं दर्शाया है। बिहार जैसा राज्य जिसने महिला उत्थान के लिए पिछले दो दशकों के दौरान अतुलनीय कार्य किया है ऐसे सरकार से ये आशा नहीं थी कि बिहार जातिगत जनगणना में महिलाओं की पहचान और महिलाओं के आँकड़ों को गौण कर दिया जाएगा।
बिहार जातिगत जनगणना रिपोर्ट में हिजड़ों/किन्नर की अलग से गणना तो की गई है लेकिन उनकी संख्या हास्यास्पद रूप से कम है। दूसरी तरफ़ इस गणना में वेश्याओं की गणना की ही नहीं गई है जबकि साल 1931 में हुए जातिगत जनगणना में वेश्याओं की अलग से गणना की गई थी।
नौवीं कमी:
बिहार जातिगत जनगणना की पहली प्राथमिक रिपोर्ट जब दो अक्तूबर को सार्वजनिक की गई थी तो बिहार सरकार के वेब्सायट पर वह रिपोर्ट तुरंत उपलब्ध करवा दिया गया था लेकिन 6 नवम्बर 2023 को जब बिहार सरकार ने बिहार जातिगत जनगणना की पूरी रिपोर्ट सार्वजनिक की तो उसे बिहार सरकार के किसी भी वेब्सायट पर एक हफ़्ते बाद भी सार्वजनिक नहीं किया गया है।
दसवीं कमी:
बिहार जातिगत जनगणना कि रिपोर्ट सिर्फ़ हिंदी भाषा में प्रकाशित किया गया है। बिहार सरकार और ख़ासकर RJD और JDU का दावा है कि बिहार जातिगत जनगणना की यह रिपोर्ट ऐतिहासिक दस्तावेज है क्यूँकि 92 वर्षों के बाद जातीय गणना की रिपोर्ट सार्वजनिक करने वाला बिहार हिंदुस्तान का पहला राज्य भी है और अकेला राज्य भी है। RJD और JDU के दावों में पूरी सच्चाई है लेकिन अगर यह दस्तावेज इतना ही ऐतिहासिक है तो फिर इस दस्तावेज का प्रकाशन अन्य भाषाओं में क्यूँ नहीं किया गया है?

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