“नौदिन चले ढाई कोश” (Nine days for going two and a half kosh: five miles)
यह कहावत भले ही पहाड़ी भाषा में न हो पर पहाड़ों में कम से कम डेढ़-दो सौ वर्षों से प्रचलित ज़रूर है। इस कहावत का ज़िक्र उन्निसवी सदी के कुमाऊँ के असिस्टेंट कमिशनर पंडित गंगा दत्त उप्रेती भी अपनी किताब में ज़िक्र करते हैं। यह कहावत का इतिहास केदारनाथ और बद्रीनाथ धाम के एक दूसरे से अलग होने की कहानी कहती है और बद्रीनाथ से केदारनाथ जाने के लिए प्रसिद्ध उस मार्ग की जिसे इतिहास में भूल दिया गया है।
अफ़सोस इस इस बर्फ़ानी मार्ग के बारे में बहुत कम लोगों ने लिखा है, और जो लिखा है वो न हिंदी में है और न अंग्रेज़ी में। दो पुस्तक जो इस विषय पर लिखा गया है उसमें से एक बंगाली में है और दूसरा गुजराती में। सोमित्रा चैटर्जी द्वारा लिखित और वर्ष 2005 में प्रकाशित ‘पनपटीयार दयारनाल’ बंगाली भाषा में है। वहीं दूसरी पुस्तक प्रसिद्ध गांघीवादी लेखक और गांधीजी के अख़बार नवजीवन और यंग इंडिया आदि के प्रबंधक आनंद स्वामी (1887 – 1976) द्वारा लिखित उत्तरपठनी यात्रा: बर्फ़ रास्ते बद्रीनाथ’ है।
ये दोनो किताब आपको जल्दी न किसी दुकान में मिलेगी और न ही किसी अमेजन या फ्लिपकार्ट जैसे किसी ऑनलाइन विक्रेता के यहाँ। पहली किताब का इ-बुक हम आपको उपलब्ध करवा सकते हैं पर दूसरी किताब के लिए आपको गुजरात के ‘गुजरात आर्ट्स एंड साइयन्स कॉलेज का स्यदेनहम लाइब्रेरी’ या गांधी सेवा-आश्रम जाना पड़ेगा।
माना जाता है कि एक समय था जब केदारनाथ और बद्रीनाथ का प्रमुख पुजारी एक ही व्यक्ति हुआ करता था। आज भले ही दोनो धाम के बीच की दूरी लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर हो पर मान्यता थी कि इतिहास में दोनो धाम के बीच कि दूरी पंद्रह किलो मीटर अर्थात् नौ माइल या ढाई कोश से अधिक नहीं थी। पुजारी सुबह बद्रीनाथ में पूजा करने के बाद पैदल केदारनाथ तक का सफ़र तय करते थे और शाम को केदारनाथ में पूजा करते थे। और फिर देर रात को केदारनाथ से बद्रीनाथ का सफ़र तय करते थे और सुबह फिर से बद्रीनाथ भगवान की पूजा करते थे।

मान्यता ये भी है कि कालांतर में बद्रीनाथ भगवान और केदार बाबा के बीच अर्थात् शिव और विष्णु भगवान के बीच, सम्बंध ख़राब होने लगे। सम्बंध इतने ख़राब हो गए कि दोनो के बीच दूरी बढ़ी और ये दूरी ने हिमालय में भी दरार पैदा किया, पहाड़ टूटे, खिसके और एक दूसरे से अलग हो गए। जो दूरी सुबह से शाम तक पैदल चलकर तय की जा सकती थी अब वो दूरी नौ दिन की हो गई और इसलिए दोनो मंदिरों में एक ही पुजारी द्वारा पूजा करना असम्भव हो गया। अंततः दोनो मंदिरों के लिए अलग अलग पुजारी रखे गए।
माना ये भी जाता है कि चुकी ये दैविय मार्ग था जिसे ईश्वर ने सिर्फ़ पुजारी के लिए बनाया था इसलिए दोनो धाम में पृथक पुजारी स्थापित करने के बाद इस मार्ग को विलुप्त कर दिया गया। कालांतर में कई पर्वतारोहियों ने इस पुराने मार्ग को खोजने का प्रयास किया पर असफल रहे।
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इस मार्ग की खोज का प्रयास जारी रहा और अलग अलग दावों के अनुसार वर्ष 1934-35 के आस पास फिर से इस मार्ग को खोज लिया गया जब प्रसिद्ध पर्वतारोही एरिक शिप्टोन और एच॰डबल्यू॰ टिल्मन ने नंदा देवी के साथ-साथ इस रास्ते पर यत्र की। 1980 में मानस बासु, अमिताव दत्ता आदि ने रांसी, मध्यमहेश्वर होते हुए केदारनाथ सात दिनो में पहुँचे। वर्ष 1981, 1984, 1997, 1998, 1999, और फिर 2007, आदि में पर्वतारोहियों का इस यात्रा पर जाने का संघर्ष जारी रहा जिसमें कुछ जान भी गवानी पड़ी।
लेकिन ये रास्ता कभी आम यात्री के लिए सम्भव नहीं हो पाया। हालाँकि आज भी आपको चमोली ज़िले में कुछ आम लोग मिल जाएँगे जो इस यात्रा को बड़ी ही सुगमता से करते हैं। गोपेश्वर शहर में एक सब्ज़ी बेचने वाले व्यक्ति जिन्हें लोग नेपाली भेजी कहकर पुकारते हैं, अपनी सौ किलो के वजन के साथ बड़ी आसानी से ये यात्रा कर डालते हैं।
इस यात्रा को पूरा करने कस श्रेय 11 वर्षीय निलकंठ वर्णी (1781-1830) को भी जाता है जो घनश्याम पांडे, और सहजानंद स्वामी के नाम से भी प्रचलित थे। 11 वर्ष की उम्र में इस यात्रा को पूरा करने वाला यह बालक शायद दुनियाँ का सबसे छोटी उम्र का पर्वतारोही होगा। यह यात्रा आज भी सबसे कठिन और दुर्गम यात्राओं में से एक है लेकिन स्थानीय लोग इस यात्रा से परिचित हैं जिसका नाम पनपतिया कोल ट्रेक है।
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