उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में स्थित चार-धाम यात्राओं में से बद्रीनाथ एक मात्रा धाम था जहां अंग्रेजों का प्रत्यक्ष शासन था। अंग्रेजी शासन के दौरान उत्तराखंड ब्रिटिश कुमाऊँ, ब्रिटिश गढ़वाल और टिहरी गढ़वाल तीन हिस्सों में बटा हुआ था जिसमें से बद्रीनाथ क्षेत्र ब्रिटिश गढ़वाल का हिस्सा था। जबकि भागीरथी नदी के उत्तर में स्थित तीन अन्य धाम गंगोत्री, यमुनोत्री और केदारनाथ टिहरी गढ़वाल के राजा का क्षेत्र था। बद्रीनाथ टिहरी गढ़वाल राजा के लिए धार्मिक और अंग्रेजों के लिए तिब्बत के साथ व्यापारिक व औपनिवेशिक आकक्षाओं के नजरिए से महत्वपूर्ण थे और दोनों बद्रीनाथ का क्षेत्र छोड़ना नहीं चाहते थे।
बद्रीनाथ धाम भारत को तिब्बत के जोड़ने वाली तीन प्रमुख व्यापार मार्गों में से एक पर स्थित है। दो अन्य मार्गों में से एक लद्दाख होते हुए जाती थी और दूसरी नेपाल होते हुए और दोनो क्षेत्र ब्रिटिश उपनिवेश के अधीन नहीं थे। गढ़वाल क्षेत्र पर भी वर्ष 1815 तक गोरखा का राज्य था। 1815 से पहले आने वाले ब्रिटिश शोधकर्ता या व्यापारी गुप्त रूप छुपते-छुपाते वेश बदलकर से बद्रीनाथ क्षेत्र में आया करते थे। गोरखा राज्य के अधिकारी माना और नीती गाँव के स्थानीय लोगों को यूरोप से आए व्यापारियों और यात्रियों को मदद करने के लिए दंडित भी करते थे।
“धर्म नहीं, व्यापार और उपनिवेशिक आकांक्षाओं से प्रेरित था अंग्रेजों के लिए बद्रीनाथ”
वर्ष 1812 में, ब्रिटिश सर्जन विलियम मूरक्राफ्ट अपने सहयोगी हाइडर यंग हीरसेय के साथ पश्मीना चादर और अंग्रेजी सेना के लिए उच्च किस्म के घोड़ों की खोज में हिंदू साधु का वेश बदलकर और अपना नाम क्रमश मायापूरी और हरिगिरी रखकर कुमाऊं होते हुए नंदा देवी तक पहुँचते हैं। जोशीमठ-माना-बद्रीनाथ गांव के बाद वो लोग गोसाईं व्यापारी बनकर तिब्बत के गरटोक तक जाते हैं। लेकिन लासा प्रशासन (गोरखा) द्वारा वो पकड़े जाते हैं और उन्हें तीन वर्ष की जेल की सजा दी जाती है क्यूँकि संधि के अनुसार पश्मीना कम्बल सिर्फ़ लद्धाख और अफ़ग़ान को निर्यात किया जा सकता था।
पश्मीना कम्बल का व्यापार ईस्ट इंडिया कम्पनी के लिए इतना महत्वपूर्ण हो गया था कि विलियम मूरक्राफ्ट तिब्बत से वहाँ का स्थानीय भेड़ (बकरी) ख़रीदकर लंदन ले गए और अंग्रेजों ने इंग्लैंड में ही पश्मीना कम्बल का उत्पादन करने का प्रयास किया पर सफल नहीं हो पाएँ।

अंततः वर्ष 1815 में अंग्रेजों ने गढ़वाल के राजा के साथ संधि करके समग्र रूप से गढ़वाल और कुमाऊँ में गोरखा को हरा बाहर किया जिसके बाद तिब्बत का व्यापार अंग्रेज़ी व्यापारियों के लिए बिना किसी रोक टोक के खुल गया। युद्ध जीतने के बाद क्षेत्र के बंटवारे के दौरान गढ़वाल राजा और अंग्रेज दोनों बद्रीनाथ का क्षेत्र अपने पास रखना चाहते थे। अंततः संधि में तय हुआ कि बद्रीनाथ क्षेत्र अंग्रेजी शासन के अंतर्गत होगा लेकिन मंदिर का परिसर यात्रा के दौरान (मई से अक्टूबर) गढ़वाल राजा के द्वारा संचालित होगी जबकि अंग्रेज को तिब्बत के साथ इस रास्ते होने वाले व्यापार पर एकाधिकार रहेगा।
बद्रीनाथ मंदिर परिसर का यात्रा के दौरान संचालन का कार्य टिहरी के राजा के लिए इतना महत्वपूर्ण था कि उन्होंने इसके बदले में राजा ने गढ़वाल का एक प्रमुख व्यापार व मुद्रा उत्पादन केंद्र, श्रीनगर , अंग्रेजों को दे दिया। आज भी बद्रीनाथ मंदिर का कपाट खुलने की प्रक्रिया की शुरुआत टेहरी गढ़वाल में स्थित राजमहल से होती है और डिम्मर गाँव (कर्णप्रयाग) में बसे बद्रीनाथ मंदिर के पुजारियों के यहाँ होते हुए बद्रीनाथ जाती है।
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बद्रीनाथ मंदिर परिसर से महज पांच किलोमीटर आगे बसा माणा गांव होते हुए तिब्बत को जाने वाली व्यापार मार्ग सिर्फ़ अंग्रेज़ी प्रशासन या व्यापारियों के लिए ही नहीं बल्कि इंग्लैंड के अलावा जर्मनी जैसे अन्य यूरोपीय देशों से आने वाले खोजकर्ता और पर्वतारोहियों के लिए भी महत्वपूर्ण बना रहा। लेकिन चुकी क्षेत्र पर अंग्रेजों का आधिपत्य था तो ग़ैर-अंग्रेज़ी यूरोपीय क्षेत्रों से आने वाले लोगों को माना या नीती गांव होते हुए तिब्बत जाने के लिए गुप्त और चोरी-छिपे वेश बदलकर आना पड़ता था।
वर्ष 1855 में जर्मन खोजकर्ता हरमन, अडोल्फ़ और रॉबर्ट सचलगिनत्वेत अपने समूह के साथ बुद्ध भिक्षु का वेश बनाकर जोशीमठ-मिलान होते हुए तिब्बत में गरटोक तक जाते हैं। इस यात्रा के दौरान कशगर नामक स्थान के पास अडोल्फ़ की हत्या भी हो जाती है।
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माणा गांव, गढ़वाल-तिब्बत (चीन) सीमा पर बसा का आखिरी गांव है। यहाँ से भूटिया जनजाति के लोग हर वर्ष तिब्बत से व्यापार करने जाते थे। लासा और गरटोक तिब्बत राज्य का दो प्रमुख केंद्र था। पूर्वी तिब्बत का प्रशासनिक केंद्र लासा था जबकि पश्चिमी का गरटोक। गरटोक तिब्बत का महत्वपूर्ण व्यापार केंद्र भी था।
गरटोक अपने उच्च किस्म के पश्मीना चादर के लिए जाना जाता था। यहाँ की पश्मीना चादर इतना प्रचलित था कि उस दौर में लद्दाख और अफ़ग़ान से लोग यहाँ से पश्मीना चादर खरीदने आते थे। हिंदुस्तान की आज़ादी के बाद भी माना और नीती गांव के रास्ते तिब्बत से होने वाला गर्म कपड़ों का व्यापार जारी रहा। माना जाता है कि आज भी माना गाँव के निवासी चोरी छुपे तिब्बत से व्यापार करते हैं।

जब 1920 के दशक में गंगोत्री क्षेत्र में तिब्बत और टेहरी राज्य के बीच सीमा सम्बन्धी विवाद हुआ तो ब्रिटिश ने मध्यस्यता करने की कोशिस की। विवाद का समाधान के रूप में जब अंग्रेज़ी सरकार ने निलंग गाँव को तिब्बत और टेहरी के बीच की सीमा प्रस्तावित किया तो टेहरी के राज ने इस फ़ैसले को मानने के एवज़ में अंग्रेज़ी सरकार से बद्रीनाथ का क्षेत्र माँगा। बद्रीनाथ क्षेत्र अंग्रेजों के लिए इतना महत्वपूर्ण था कि अंग्रेज़ी सरकार टेहरी राजा के इस प्रस्ताव को मानने से माना कर दिया और अंग्रेज़ी सरकार द्वारा टेहरी-तिब्बत सीमा विवाद के बीच मध्यस्यता करने का प्रयास असफल हो गया।
तिब्बत और हिमालय ने सिर्फ़ अंग्रेजों को नहीं बल्कि हिटलर को भी आकर्षित किया था। 1938 आते-आते हिटलर एशिया की तरफ़ अपना रुख़ कर चुका था। 1938 में Ernst Schäfer के नेतृत्व में हिटलर ने एक खोजी अभियान कलकत्ता भेजी जिनका मक़सद हिमालय जाकर ये सिद्ध करना था कि हिमालय में रहने वाले लोगों के पूर्वज आर्य थे ताकि हिटलर हिमालय के पहाड़ों पर आर्य (नस्ल-रेस) के आधार पर अपना कब्जा जमा सके। जब कलकत्ता में बैठी अंग्रेज़ी सरकार ने उन्हें तिब्बत जाने की अनुमति नहीं दी तो वो लोग गुप्त रूप से गढ़वाल या भूटान होते हिमालय और तिब्बत में शोध करने का फ़ैसला किया जो उन्होंने किया भी।
स्त्रोत: चित्र ग़ैरी एल्डर द्वारा विलियम मूरक्राफ्ट के यात्रा वृतान्त पर लिखित पुस्तक ‘बीआंड बोखरा: लाइफ़ ओफ़ विलियम मूरक्राफ्ट’ से लिया गया है।

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