पहाड़ अपने यात्राओं के लिए जाना जाता रहा है। पैदल यात्रा! धार्मिक, राजनीतिक, व्यापारिक, शोधपरक-खोजी, हर तरह की यात्रा। कुमाऊँ के पिथौरागढ़ ज़िले में स्थित अस्कोट मुख्यतः दो यात्राओं के लिए जाना जाता है: कालांतर से चलता आ रहा कैलास-मानसरोवर यात्रा जिसका पारम्परिक आयोजन अस्कोट के राजा ही करते थे और जो अब चीन के क़ब्ज़े में है। और दूसरी 1974 में शुरू होकर आज तक हर दसवें वर्ष में होने वाली ‘अस्कोट-आराकोट यात्रा‘।
“वर्ष 1974 से हर 10 वर्ष के अंतराल पर हो रही है ‘अस्कोट-आराकोट‘ यात्रा”
उत्तराखंड के इतिहास ने एक महत्वपूर्ण यात्रा को हमेशा गौण रखा। इतिहास की इस चुप्पी पर पंडित नेहरू बार-बार आज़ादी के पहले से लेकर आज़ादी के बाद तक बोलते रहे। बोलते रहे वहाँ के किसानों की बदतर हालत के बारे में, वहाँ जारी बेगार प्रथा के बारे में, किसानो की ज़मींदार द्वारा ज़मीन से बेदख़ली के बारे, बोलते रहे, स्थानीय कांग्रेस नेताओं की अस्कोट की जनता के प्रति उदासीनता के बारे और इन्हीं उदासीनता ने जन्म दिया अस्कोट-लखनऊ यात्रा की।

1937 में पूरे हिंदुस्तान के सभी राज्यों में अंग्रेजों ने चुनाव करवाया गया। तब के यूनाइटेड प्राविन्स और आज के उत्तर प्रदेश के प्रधानमंत्री (मुख्य मंत्री) बने गोविंद बल्लभ पंत। पहाड़ों से पलायन कर लखनऊ में शरण ले चुके, पहाड़ों में बेगरी प्रथा के ख़िलाफ़ हुए आंदोलन (1921) के नायक और कांग्रेसी ज़मींदार थे गोविंद बल्लभ पंत। पंत सरकार ने दो दो कमिटीयाँ बनाई, अस्कोट के किसानो की हालत की पड़ताल करने के लिए।
कमिटी की रिपोर्ट का खेल से थक कर अंततः यहाँ के किसान, जीत सिंह पाल के नेतृत्व में पाँच सौ किसानो के साथ अस्कोट-लखनऊ यात्रा पर निकाल पड़े। आज भी इस क़स्बे में रह रहे जीत सिंह पाल के दोनो पोते बताते हैं कि यात्रा को रोकने का हर सम्भव प्रयास किया गया था।
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अंततः पहाड़ों से पलायन कर चुके और कुमाऊँ परिषद के संस्थापक हरगोविंद पंत जी को खुद किसानो को वापस करने के लिए भेजा गया। ढेर सारे वादों के साथ पीलीभीत से किसानो को वापस कर दिया गया। पर प्रदेश के प्रधानमंत्री गोविंद बल्लभ पंत किसानो की सूद तक लेने नहीं आए।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ही जवाहरलाल नेहरू भी इस घटना और अस्कोट के किसानो की बदहाली का ज़िक्र करते हुए बताते हैं कि कैसे अस्कोट-लखनऊ यात्रा के दौरान किसानो को लुभावने सपने दिखाकर, डराकर, राष्ट्रहित के लिए बलिदान देने का दुहाई देकर आदि कांग्रेस के उत्तराखंडी नेताओं ने उनके साथ अन्याय किया था।
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यहाँ के किसानों के साथ किए गए उन वादों के साथ वही हुआ जो पहाड़ों में होने वाले सभी आंदोलनो के साथ पहाड़ के लोगों को मिलने वाले वादों के साथ हुआ ही। वर्ष 1955 में ही पूरे हिंदुस्तान में क़ानूनी रूप से ग़ैर-क़ानूनी हो चुकी ज़मींदारी प्रथा अस्कोट में वर्ष 1967 तक जारी रही। यहाँ में आज भी लैंड सीलिंग ऐक्ट लागू नहीं है। यहाँ के राजा आज भी गर्व से अपने आप को राजा ही समझते हैं, अपना संग्रहालय बनवाते हैं, हिंदुस्तान सरकार को कोई ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं देते हैं। अंग्रेजों द्वारा ही ग़ैर-क़ानूनी घोषित हो चुकी कुली-बेगार प्रथा अस्कोट में आज़ादी के बाद भी फलता फूलता रहा।
आज़ादी से पहले बार-बार यहाँ के किसानो का ज़िक्र करने वाले पंडित नेहरू भी स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री बनते ही अस्कोट को भूल गए। आज भी अस्कोट में रहने वाले वन-राज़ी जनजाति के लोग हिंदुस्तान में पाए जाने वाले सर्वाधिक पिछड़े समाज में से एक हैं। शासकों का इतना भय कि हाल ही में जब कोरोना जाँच के लिए स्वस्थ्य्कर्मी वन-राज़ी समाज के गाँव में गए तो पूरा का पूरा गाँव अपने अपने घर छोड़कर जंगल में जाकर छुप गए।

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