उन्निसवी सदी के पहाड़ों में तीन प्रकार के कुली-बेगार मिलते थे: कुली बेगार, कुली उतर और कुली बरदायश। कुली बेगार को किसी प्रकर की कोई मज़दूरी नहीं दी जाती थी जबकि कुली उतर को वास्तविक में मिले या नहीं मिले पर उन्हें न्यूनतम मज़दूरी पाने का अधिकार था। तीसरे तरह के कुली बरदायश से मुफ़्त में अनाज, फल-सब्ज़ी, दुध, इंधन आदि स्थानिय उत्पाद लिए जाते थे।
जब भी कोई सेना की टुकड़ी, गोरे शिकारी, शोधकर्ता, पर्वतारोही आदि इनके क्षेत्र में भ्रमण पर आते थे तो तो पुजारी, पधान, सेवानिवृत सैनिक और सरकारी सेवक को छोड़कर किसी से भी बेगारी करवाया जा सकता था। 1860 के दशक से सरकार द्वारा बढ़ते शोध, सर्वे, शिकार यात्राएँ होने से कुली-बेगार की माँग बढ़ी और उसी के साथ कुलियों के ऊपर बोझ भी बढ़ी। गाँव के पधान, पटवारी आदि की यह ज़िम्मेदारी होती थी कि वो उनके क्षेत में ज़रूरत पड़ने पर कुली उपलब्ध करवाए।

टेहरी राज में कुली-बेगार:
टेहरी गढ़वाल, जहाँ राजतंत्र था वहाँ बेगारों की कुछ अन्य रूप देखने को मिलते हैं। उदाहरण के लिए गाँव बेगार ग्राम स्तर के सरकारी कर्मचारियों के सामान ढोते थे, मंज़िल बेगार यात्रा पर आए आला अधिकारियों और राज्य के अतिथियों का सामान ढोते थे और बेंठ राज्य के द्वारा बनाए जा रहे इमारतों में श्रम देते थे।
स्थानिये लोगों द्वारा इस बेगारी का विरोध करने के कुछ शांतिपूर्ण तरीक़े भी विकसित किए गए। जैसे कि दिए गए कार्य को बेवजह विलम्ब करना, भोजन बनाने या खाने के लिए आवंटित समय को लम्बा खिंचना आदि। समाज के कमजोर वर्ग द्वारा शोषण की संस्कृति के प्रति प्रतिरोध जताने के इन्हीं तरीक़ों को इतिहासकार जेम्स स्कोट अपनी किताब ‘वेपन ओफ़ द वीक’ में सूचीबद्ध करते हैं।

कुली-बेगार प्रथा का प्रतिरोध:
इस व्यवस्था के ख़िलाफ़ कभी-कभी स्थानिये स्तर पर छिटपुट विरोध भी होता था लेकिन उन्निसवी सदी के अंत से पहले कोई सुनियोजित विद्रोह नहीं हुआ। उदाहरण के तौर पर वर्ष 1820 में कुछ कुली को लोहाघाट बुलाया गया लेकिन वे नहीं आए। इसी तरह की घटनाएँ वर्ष 1822 में पिथौरागढ़, 1837-38 में अल्मोडा, 1844 में सोमेश्वर आदि में होती रही। 1878 में जब सोमेश्वर के कुछ किसानो ने बेगारी करने से इंकार किया था स्थानिय कमिश्नर हेनरी रेम्जे ने उनपर कई तरह के दंड कर लगाए।
वर्ष 1871 में शुरू हुए अल्मोडा अख़बार के 23 नवम्बर 1891 के संस्करण में कुली-बेगार व्यवस्था की विस्तृत आलोचना की गई। 1890 के दशक के दौरन प्रोविंसीयल कौंसिल में भी इस प्रश्न को बार-बार उठाया गया कि मोटी तनख़्वाह पाने वाले ब्रिटिश अधिकारियों के लिए मुफ़्त कुली-बेगार सेवा क्यूँ दिया जाय।
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वर्ष 1903 में अल्मोडा के पास खत्यारी गाँव के कृषक ने बेगारी करने से मना कर दिया जिसके एवज़ में उनपर दो रुपए का दंड लगाया गया। विरोध में किसान पहले स्थानिय न्यायालय गए और बाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय चले गए जहाँ किसानो के हक़ मेन फ़ैसला हुआ। इसी वर्ष वायसराय लोर्ड कर्ज़न की कुमाऊँ यात्रा के दौरन उन्हें इस विषय में ज्ञापन भी सौंपा गया। 1916 में जब कुमाऊँ परिषद की स्थापना हुई तो कुली बेगार आंदोलन व्यवस्थित तरीक़े से प्रारम्भ हो गया।
अब प्रतिरोध तीव्र और कई स्थानो पर हिंसक भी होने लगा था। नवम्बर 1917 में जब बीरोंखाल के पास एक चपरासी ने एक कुली को विलम्ब से आने के लिए पिट दिया तो प्रतिरोध में ग्रामीणों ने चपरासी को भी पिट दिया। इसी तरह की घटनाएँ अगले 2-4 वर्षों में बेरीनाग, थल, चमोली, और गंगोली में भी देखने को मिली।

कुमाऊँनी सभा ने सिर्फ़ कुली उतर व्यवस्था को निरस्त करने पर ज़ोर दिया। कई चोटे-मोटे आंदोलन के बाद अंततः जनवरी 1921 में असहयोग आंदोलन के दौरन बगेश्वर के उत्तरायनी मेले में कुली बेगार प्रथा के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने के लिए लगभग दस हज़ार लोग जमा हुए। कुली के खाता-बही को सरयु नदी में विसर्जित कर दिया गया, आक्रामक भाषण दिए गए, नदी का पानी हाथ में लेकर क़सम खाई गई।
बगेश्वर से आने के बाद सभी आंदोलनकारी गाँव-गाँव गए, सैकड़ों सभा हुई जिसमें बगेश्वर में हुई घटना के साथ लोगों को कुली-बेगार प्रथा के ख़िलाफ़ जागरुक किया। अबतक आंदोलन में शिक्षक और छात्र भी शामिल हो चुके थे। पधान और अन्य ग्राम-स्तरीय सरकारी सेवक सरकार के ख़िलाफ़ गांधीवादी असहयोग आंदोलन में शामिल हो चुके थे। उधर सरकार ने लगभग पूरे कुमाऊँ में धारा 144 लगा दिया था लेकिन आंदोलनकारी आंदोलन करते रहे और अंततः दिसम्बर 1921 में सरकार ने कुली बेगार व्यवस्था ग़ैर-क़ानूनी घोषित कर दिया।
वर्ष 1921 में भले ही कुली-बेगार प्रथा खत्म हो गई हो पर आज भी कुली पहाड़ों में डोटीयाल, बहादुर, नेपाली आदि नामों से पहाड़ के शहरों में लोगों का बोझा ढ़ोते नज़र आ जाएँगे।
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