वन अधिकार क़ानून 2006:
भारतीय वन अधिकार क़ानून 2006 को लागू करने के मामले में हिमाचल प्रदेश सर्वाधिक फिसड्डी राज्यों में से एक है। हिमाचल प्रदेश वह राज्य हैं जहाँ की कुल क्षेत्रफल का 41.01 प्रतिशत भूभाग बंजर है और जहाँ की 90 प्रतिशत आबादी जंगल पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से निर्भर है। (Source)
वर्ष 2006 में वन अधिकार क़ानून लागू होने से लेकर जनवरी 2022 तक हिमाचल प्रदेश में मात्र ज़मीन के 129 व्यक्तिगत और 35 सामूहिक पट्टों पर स्थानिये लोगों को मालिकाना अधिकार दिया गया है। प्रदेश में इस दौरान मात्र 2642 व्यक्तिगत और 261 सामूहिक पट्टों पर अधिकार के लिए आवेदन जमा किए गए थे। (Source)
ज़मीन के पट्टों पर आवेदन और वितरण की इस संख्या में जनवरी 2020 से कोई वृद्धि नहीं हुई है। पिछले सोलह वर्षों के दौरान प्रदेश में मात्र 5.96 एकड़ ज़मीन व्यक्तिगत पट्टों और 4741 एकड़ सामूहिक पट्टों के रूप में वितरित किया गया है। (Source) जबकि एक आँकड़े के अनुसार प्रदेश में लगभग 3.2 एकड़ ज़मीन ऐसे हैं जिसपर स्थानिये लोग परम्परागत तौर पर हज़ारों वर्षों से उपयोग कर रहे हैं। (Source) सामूहिक पट्टे मूल्यतः ग्राम सभा द्वारा चारागाह, विद्यालय, अस्पताल आदि के लिए आवंटित किए गए हैं क्यूँकि वन अधिकार क़ानून 2006 के अनुसार ग्राम सभा को एक हेक्टेयर ज़मीन तक सामूहिक कार्यों के लिए ज़मीन आवंटित किए जाने का अधिकार है। (Source)
अन्य राज्यों में वन अधिकार क़ानून:
वन अधिकार क़ानून को लागू करवाने के प्रति प्रतिबद्धता का तुलनात्मक अध्ययन करने पर पता चलता है कि ओड़िसा जैसा पिछड़ा राज्य ने पिछले चौदह वर्षों के दौरान 4,39,436 व्यक्तिगत और 6,577 सामूहिक ज़मीन के पट्टों पर स्थानिये लोगों को मालिकाना अधिकार दिया गया है जबकि 6,21,732 व्यक्तिगत और 15,073 सामूहिक आवेदन प्राप्त किए गए। (Source) अर्थात् ओड़िसा न सिर्फ़ वन अधिकार क़ानून लागू करवाने के मामले में हिमाचल प्रदेश से आगे है बल्कि इस क़ानून के प्रति लोगों में जागरूकता फैलाने में भी हिमाचल प्रदेश से आगे है।
यह विदित होना चाहिए कि ओड़िसा की कुल भूमि का मात्र 11.53 प्रतिशत भूभाग बंजर है जो हिमाचल से लगभग चार गुना कम है। इसी तरह बिहार जैसा सघन आबादी वाला राज्य जहाँ की कुल भूमि का मात्र 8.16 प्रतिशत हिस्सा बंजर हैं वहाँ भी पिछले चौदह वर्षों में हिमाचल प्रदेश के लगभग बराबर अनुपात में वन अधिकार क़ानून 2006 को लागू किया गया है। (Source)
बेईमान हिमाचल सरकार:
दरअसल हिमाचल प्रदेश सरकार प्रारम्भ से ही प्रदेश की ज़मीन पर प्रदेश की जनता को मालिकाना हक़ देने से बचने का प्रयास करते आई है। वर्ष 1974 में हिमाचल सरकार ने Common Land Utilisation and Vesting Act के तहत प्रदेश के सभी बंजर ज़मीन पर सरकार का मालिकाना हक़ स्थापित कर लिया। विरोध के बाद वर्ष 1976 में हिमाचल प्रदेश नौतोर क़ानून के तहत प्रदेश के भूमिहीन को ज़मीन के पट्टे देने का वादा किया गया।
जब वर्ष 2006 में केंद्र सरकार ने वन अधिकार क़ानून लागू किया तो क़ानून को लागू करने के लिए बाध्य हिमाचल सरकार अधूरे मन से पहले (2008) तो इस क़ानून को प्रदेश के Scheduled हिस्सों में लागू करने की घोषणा की और फिर बाद में (2012-13) में पूरे प्रदेश में लागू करने की घोषणा किया। लेकिन वर्ष 2016 तक प्रदेश की सरकार ने एक इंच ज़मीन पर भी स्थानिये लोगों को मालिकाना हक़ नहीं दिया।
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जब केंद्र सरकार ने इस मामले में राज्य सरकार से जवाब माँगा तो प्रदेश के मुख्यमंत्री ने कहा कि हिमाचल में ज़मीन पर स्थानिये लोगों के पारम्परिक मालिकाना हक़ का मुद्दा प्रदेश की सरकार ने 1976 के दशक के दौरान ही हल कर चुकी है। जबकि सच्चाई यह थी कि प्रदेश में जिन स्थानिये लोगों को भी 1976 के क़ानून के तहत ज़मीन पर क़ब्ज़ा दिया गया था उनसे उनकी ज़मीन कभी भी छिन जाने का प्रावधान था।
इसके अलावा वर्ष 1980 में लागू Forest Conservation Act और Wildlife Protection Act 1972 के तहत किसी भी सरकारी ज़मीन पर बिना केंद्र सरकार की अनुमति के राज्य सरकार मालिकाना हक़ नहीं दे सकती थी। अर्थात् हिमाचल प्रदेश नौतोर क़ानून 1976 के तहत राज्य सरकार द्वारा स्थानिये लोगों को ज़मीन पर दिया गया मालिकाना हक़ ग़ैर-क़ानूनी थी।
लड़ाई लम्बी है:
हिमाचल प्रदेश में कितने परिवार अपने पारम्परिक ज़मीन के पट्टे पर मालिकाना हक़ का इंतज़ार कर रहे हैं इसका अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि वर्ष 2002 में जब केंद्र सरकार ने सभी राज्य सरकारों को ज़मीन पर स्थानिये लोगों के पारम्परिक अधिकारों को व्यवस्थित करने का निर्देश दिया तो अकेले हिमाचल प्रदेश से 1.65 लोगों ने आवेदन किया था।
हिमाचल सरकार कई मामलों में लगातार स्थानिये लोगों को उनके ज़मीन पर पारम्परिक अधिकार से बेदख़ल कर रही है जबकि नियमगिरी बनाम भारत सरकार फ़ैसले में देश की सर्वोच्च न्यायालय यह फ़ैसला दे चुकी है कि जब तक वन अधिकार क़ानून 2006 को देश में पूरी तरह लागू नहीं कर दिया जाता है तब तक किसी भी व्यक्ति को उसके पारम्परिक ज़मीन से बेदख़ल नहीं किया जा सकता है।
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