HomeCurrent Affairs“पहाड़ के जेल से पंडित नेहरु का प्रेम-पलीता”

“पहाड़ के जेल से पंडित नेहरु का प्रेम-पलीता”

प्रेम, पहाड़ और लेखनी का कालांतर से ही गहरा रिस्ता है। उन्ही रिश्तों करना रोमांचक और प्रेम-प्रिय भी है।

बहुत अच्छी जगह होती है जेल, ख़ासकर अगर वो आपका विकल्प हो!! विकल्प इस दौड़ती-भागती दुनियाँ का, अपने आप को ही अपने आगे निकलने में जद्दो-जहद्दत करती दुनियाँ, विकल्प उस दुनियाँ का जहां हर हमाम के नंगे ऊपर से नीचे तक सजे धजे नज़र आते हैं, विकल्प मोबाइल-कम्प्यूटर में डूबती ग्लोबल दुनियाँ का। जेल के हमाम में किसी को कपड़े पहनने की इजाज़त नहीं होती है, हाँ उनमे से कुछ अपने नंगेपन का नुमाइश करते हैं और कुछ फिर से कपड़े पहनने के लिए सही समय का इंतज़ार करते हैं।

पहाड़ में प्रेम

पहाड़ और प्रेम:

यहाँ समय घड़ी के रफ़्तार से भी तेज भागती है और जेल में समय ‘पहाड़’ सा होता है। पर जिसे पहाड़ों से प्रेम हो, उसे ये समय शांत, ठहरा हुआ, आपके बौनेपन का अहसास करवाती अनोखी दुनियाँ लगती है। जो सक्षम है, पैसे वाले है, और इस पहाड़नुमा ऊँचाई से बाहर मैदानों की चकाचौंध को चाहने वाले है, तो पलायन कर जाएँगे। वरना विपदा वाली दुनियाँ के साथ जीना सीख जाएँगे। पहाड़ों की आपदा वाली दुनियाँ। 

चमोली के किसी दूरस्त गाँव में बैठे जब आप जून की तपती दोपहरी में चार दिनो की लगातार बारिश, पहाड़ों के पीछे से  निकालकर अलखनंदा में समाते बादलों का मज़ा लेकर दरवाज़े के अंदर जाते हैं तो चार दिन से वो अंधेरा वहीं पड़ा हुआ है, मोबाइल दूसरे दिन से बंद है, लैप्टॉप पहले दिन से मृत है। अलखनंदा के उफान, बादल फटने या ज़मीन खिसकने की सम्भावना के आदि हो चुके। आप मोमबत्ती से भी थक चुके हैं।

पर मोमबत्ती के सहारे रात के अंधेरे में आपके प्रेम के मवाद को साफ़ करते करते थक चुके टॉलेट पेपर की निगाहें आपके ऊपर जाती है तो अपने आप से बात करने पे मजबूर हो चुकी आपकी निगाहे, उसकी आँखो में एक अजीब चमक भर देती है। पाँच रुपए वाली मोमबत्ती की बुझती रौशनी में टॉलेट पेपर पर लिखी आपकी  पंक्तियाँ उसे उसके न होने का उसे सुखद अहसास दिलाती है, मोमबत्ती को बस जलते रहने के लिए प्रेरित करती है, बाथरूम की डस्टबीन से परे टॉलेट पेपर की दुनियाँ, आग से परे मोमबत्ती की दुनियाँ, जलते पहाड़ के बाद बरसते पहाड़ की दुनियाँ।

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अल्मोडा जेल में पंडित नेहरु
अल्मोडा जेल का वो कक्ष जहाँ पंडित नेहरु ने सजा काटे थे। (फ़ोटो साभार: NMML, नई दिल्ली)

जेल और लेखनी:

लगभग सभी महान हस्तियों की महानता इसी अंधेरे पहाड़ की गोद में पनपती है। गांधी ने धर्मग्रंथ गीता पढ़ा, उसपे टिप्पणी लिखी, नेहरू ने अपनी तीनो किताब की शुरुआत यहीं से की, ग्रामसी की ‘प्रीजन डाईरी’ से लेकर हिट्लर का ‘मेरा संघर्ष’ सब इसी समय के पहाड़ ‘जेल’ में लिखी गई है। पंडित नेहरू जब देहरादून जेल में डिस्कव्री ओफ़ इंडिया लिख रहे थे तो उन्होंने जेल प्रशासन द्वारा जेल में ज़रूरी सुविधा में कटौती करने के विरोध में जेल के अपने सेल से भी बाहर आना बंद कर दिए जबकि हर क़ैदी को सुबह और शाम दिन में दो बार बाहर आकर खुली हवा में साँस लेने और पहाड़ से रूबरू होने का मौक़ा मिलता था।

पर ये बंद दीवारें वो मौक़ा देती है आपको, जहां आप सबसे बातें करते-करते थक जाते हैं, खुद से बातें करने का इतना सुनहरा मौक़ा या तो जेल में मिल सकती है या पहाड़ों की गोद में। आँखों से परे, स्पर्श से परे, ख़ुशबू के परे, यही वो जगह है जहां आपके अंदर का ‘वो’ आपसे रूबरू होता है, प्रेम की भाषा में, इतिहास के पन्नो को पलटते हुए, अपने अंदर के ‘उसे’ पुकारते हैं आप जैसे टॉलेट पेपर की मख़मालि सतह कलम के इंतज़ार में बरखा से, अंधेरे में, पहाड़ों से, मोमबत्ती की तलब ढूँढती है, कि एक नज़र ही सही मुझे अंधेरे की नज़र से तो देखो।

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जेल की ऊँची खिड़की से आती हल्की, तीखी, और नुकीली रौशनी हरे-घने पहाड़ों के बीच से झांकती सफ़ेद हिमालय की तरह लगती है, दूरस्त, खूबसूरत, ललचाती और पुकारती दुनियाँ। उस सफ़ेद दुनियाँ को वहीं रहने देते हैं। इस अंधेरे, मोमबत्ती और उस टॉलेट पेपर से अब हमें प्रेम हो चुका है। बद्री-विशाल और बाबा केदार भी उनके सफ़ेदपन में उनका साथ नहीं देते हैं, हम क्यूँ दे, और दे देते तो वो भी बुद्ध कहलाते, शंकराचार्य नहीं!! धर्म-दुनियाँ, और मंदिर-पुजारी से परे खुद को खोजते, खुद में भटकते, बुद्ध। महाभारत का धर्म-घोष(युद्ध) नहीं, अशोक का धम्मघोष को प्रेरित बुद्ध। 

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Sweety Tindde
Sweety Tinddehttp://huntthehaunted.com
Sweety Tindde works with Azim Premji Foundation as a 'Resource Person' in Srinagar Garhwal.
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