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‘जय भीम’ नहीं

सबको पसंद आ रहा है हाल में ही रिलीज़ हुई तमिल फ़िल्म ‘जय भीम’। मुझे पसंद नहीं आ रही है। मुझे अभी भी याद है चेन्नई की वो रात (04 अक्तूबर 2018) जब मैं अपने साथियों के साथ ये फ़िल्म (Pariyerum Perumal) देखकर सिनेमा हाल से निकला और विफ़र पड़ा। तक़रीबन आधा घंटा लगा जब तक की मेरे साथियों ने मुझे सम्भाला। 

वो फ़िल्म ‘जय भीम’ से कहीं आगे, और कहीं अधिक प्रखर था। बिना अम्बेडकर, बिना मार्क्स, या बिना किसी अन्य ‘वाद’ का नाम लिए बहुत सारे विवाद जड़ गया था मेरे भीतर। उन विवादों का जवाब मेरे आंसू के अलवा किसी के पास नहीं था शायद। उस फ़िल्म में सिर्फ़ अंबेडकरवाद नहीं बल्कि सिर्फ़ दो रंग थे। वो नीला रंग पुरी फ़िल्म के दौरन बार-बार काले पर चढ़ने का प्रयास करता रहा। काला और नीला रंग हिंदुस्तान में दलित अस्मिता और उत्थान का प्रतीक माना जाता है।

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pariyerum perumal
चित्र 2: Pariyerum Perumal फ़िल्म का कवर

Pariyerum Perumal

Pariyerum Perumal फ़िल्म एक दलित परिवार के इर्द-गिर्द घुमती है जिसमें बेटा कालेज में पढ़ता है और अपने सहपाठी से प्रेम करता है जिसका विरोध प्रेमिका के परिवार के साथ साथ उसी का एक अन्य ब्राह्मण लड़का भी करता है। यहाँ तक कहानी सामान्य है। फ़िल्म को रोचक बनाता है लड़का का पिता जो लड़कियों की तरह सजधज के अलग अलग तरह के कार्यक्रम में नृत्य करके अपना परिवार पालता है। हिंदुस्तान के लगभग सभी हिस्सों में पुरुष समाज का एक तबका ऐसा होता है जो इस तरह  महिला का श्रिंग़ार करके नाचता हो। बिहार में इसे ‘लौंडा नाच’ कहते हैं। 

Pariyerum Perumal फ़िल्म का सर्वाधिक पक्ष है एक कुत्ता। नायक के परिवार का हिस्सा, करपी नाम का यह काले रंग का कुत्ता उस परिवार नहीं बल्कि पूरे दलित बस्ती का कुत्ता था। फ़िल्म गाँव उच्च जाति के लोगों के द्वारा इस कुत्ते की हत्या के साथ शुरू होती है जिसका शोक पुरा गाँव मनाता है। इस कुत्ते के पात्र को जिस तरह फ़िल्म काले और नीले रंग के प्रतीकात्मक बदलाव (जाति प्रथा) के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करता है वो अतुलनिये है। 

जय भीम,
चित्र 3: जय भीम फ़िल्म का कवर

‘जय भीम’

दूसरी तरफ़ ‘जय भीम’ फ़िल्म को पहले दिन से ही कई ‘वाद’ के आपसी झगड़ों में घसीट लिया गया। वामपंथी इस फ़िल्म को अपना बता रहे हैं क्यूँकि इसके पात्र भूतपूर्व वामपंथी हैं और आज भी मार्क्स के योगदान को सराह रहे हैं। इस फ़िल्म के तारिफ़ करने वाले भी अक्सर वामपंथी या भूतपूर्व वामपंथी हैं। शायद उन्हें ‘जय भीम’ से वो उम्मीद है जो ‘जय भीम कोमरेड’ या ‘जय भीम-लाल सलाम’ से नहीं मिल पाया। 

जय भीम’ फ़िल्म की कहानी एक उच्च जाति के वकील के इर्द गिर्द घुमती है जो एक दलित परिवार का मुक़दमा लड़ता है और उसे न्याय दिलवाता है। रिलीज़ होने के बाद फ़िल्म को कई ज़बर्दस्ती बनाए गए विवाद में घसीटा जाता है।

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दरअसल इसे हिंदुस्तान में मार्क्सवाद (Marxism) के एक सफ़र के नज़रिए से भी देखा जा सकता है जिसमें हिंदुस्तानी मार्क्सवाद, ‘लाल सलाम’ से यात्रा शुरू करके ‘जय भीम-लाल सलाम’ और ‘जय भीम कोमरेड’ होते हुए अब ‘जय भीम’ में ही अपना अस्तित्व बचाने का प्रयास कर रहा है। ये उस यात्रा का आख़री पायदान है जिसमें कन्हैया कुमार कांग्रेस में चले जाते हैं, JNU देश का सर्वोत्तम विश्वविध्यालय होते हुए भी बदनाम हो जाता है, वामपंथी सरकार बंगाल और त्रिपुरा से पुरी तरह ग़ायब हो जाता है और बिहार की वाम एकता लालूवाद और कांग्रेस के सामने घुटने टेक चुका है। 

दोनो फ़िल्म तमिल भाषा में फ़िल्माया गया है। ‘जय भीम’ तमिल में होते हुए भी हिंदी है, हिंदुस्तान के लिए, केरल की तरह वामपन्थ को हिंदुस्तान (हिंदी पट्टी) में ज़िंदा रखने के प्रयास में। 

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Sweety Tindde
Sweety Tinddehttp://huntthehaunted.com
Sweety Tindde works with Azim Premji Foundation as a 'Resource Person' in Srinagar Garhwal.
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