HomeHimalayas6 महीने तक का अधिशेष अनाज पैदा होता था पहाड़ों में

6 महीने तक का अधिशेष अनाज पैदा होता था पहाड़ों में

अनाज और सब्ज़ी जैसी कृषिगत उपज की पूर्ति के लिए आज के पहाड़ का गाँव पूर्णतः और गाँव आंशिक रूप से मैदानो पर निर्भर है। पहाड़ के किसान शहरों में पलायन कर रहे हैं और खेत बंजर होते जा रहे हैं।

जब वर्ष 1939 में ब्रिटिश खोजकर्ता Robert Hamond उत्तराखंड होते हुए तिब्बत के गरटोक पहुँचते हैं तो वहाँ उन्हें मिलने तिब्बत अधिकारी (वायसराय) (गरपोन) मिलने आते हैं और और बड़े आश्चर्य से कहते हैं, 

“कोई आपके जैसा धनी व्यक्ति हिंदुस्तान की ख़ुशहाली, आराम और सुविधाजनक ज़िंदगी छोड़कर तिब्बत के उजाड़ और विकट परिस्थिति को वाले क्षेत्र में क्यूँ आता है?”

इसी तरह 1820 के दशक में जब ईस्ट इंडिया कम्पनी के व्यापारी Thomas Skinner गंगा-यमुना के मैदान होते हुए, गंगा और यमुना के उत्तपत्ति क्षेत्र तक की यात्रा करते है तो क्षेत्र में हरे-भरे खेतों के बारे में कुछ इस तरह लिखते हैं, 

“मैं इस बात के लिए माफ़ी चाहता हूँ कि मैं यहाँ के हरे-भरे खेतों के बारे में अधिक लिख रहा हूँ लेकिन यहाँ के खेत इंग्लैंड के खेतों की तरह साफ़-सुथरे और हरे भरे हैं। यहाँ के चारों तरफ़ खेत, जंगल, फल के पेड़, जलधारा और पंक्षी भरे हुए हैं।”

सरकारी दस्तावेज और पहाड़ी अनाज:

वर्ष 1911 में अल्मोडा ज़िले का गज़ेटियर लिखने वाले H G Walton  और अल्मोडा की यात्रा पर आए C A Sherring भी जिले में होने वाली कृषि के बारे में ऐसा ही चित्रण करते हैं। वर्ष 1930 के दशक में नंदा देवी घाटी क्षेत्र में शोध के लिए आए Eric Shipton भी यहाँ के खेतों में होने वाले अधिशेष अनाज की उपज का ज़िक्र करते हैं और अपने यात्रा वृतांत मेन लिखते हैं, 

इस क्षेत्र में इतने लम्बे समय तक शोध कार्यों के लिए रहना सम्भव नहीं हो पाता अगर इस क्षेत्र का कृषि खुशहाल नहीं होता, यहाँ अधिशेष अनाज की पैदावार नहीं होती जिससे हमें और हमारे साथियों को आसनी से भोजन मिल जाता है।” 

कुमाऊँ के प्रसिद्ध कमिशनर हेनरी रेम्जे भी कुमाऊँ की कृषि का तारिफ़ करते हुए ये दावा करते हैं कि यहाँ के स्थानिय किसान हिंदुस्तान के अन्य भाग की तुलना में अधिक खुशहाल हैं। इस विषय पर जब ब्रिटिश संसद में विवाद उत्पन्न हुआ तो 1890 में गढ़वाल और कुमाऊँ के कृषि सम्बंधी समस्या पर ब्रिटिश संसद में एक रेपोर्ट पेश की गई जिसमें भी क्षेत्र होने वली कृषि की खुलकर तारिफ़ की गई। 

हिमालय की महिला
चित्र: पहाड़ों के बीच धान से चावल निकलती महिलाएँ

इसे भी पढ़ें: पलायन, पहाड़ और ‘मोती बाग’ से ‘यकुलांस’ तक: फ़िल्मों की ज़ुबानी

ब्रिटिश संसद में यह प्रेषित किया जाता है कि कुमाऊँ और गढ़वाल में ढलान वाले खेत और सिंचाई के अभाव के बावजूद crop roatation, मिश्रित खेती आदि विधी से औसतन छः महीने तक का अधिशेष अनाज की पैदावार कर ली जाती थी जिसका कुछ हिस्सा तिब्बत और दक्षिण के मैदानों में निर्यात भी किया जता था। 

कुमाऊँ या गढ़वाल में कभी भी भूमिकर के मुद्दे पर कभी किसानो के तरफ़ से कोई विद्रोह नहीं देखा गया था। ब्रिटिश काल में पहाड़ों में कुछ हद तक अनाज का आयत होता था लेकिन ये आयत इसलिए करना पड़ता था क्यूँकि यातायात का कोई साधन नहीं होने के कारण कई गाँव तक पहुँचना और वहाँ से अनाज ख़रीदकर मंडी तक लाना असम्भव होता था। 

अनाज और पलायन:

उत्तराखंड के पहाड़ों में कृषि का पतन आज़ादी के बाद शुरू हुआ जब क्षेत्र के उच्च वर्ग अपनी राजनीतिक और प्रशासनिक महत्वकांक्षा के साथ उत्तर प्रदेश की राजनीतिक और शैक्षिक राजधानी लखनऊ और इलाहाबाद की तरफ़ पलायन किया। अर्थिक रूप से सम्पन्न शिक्षत वर्ग द्वारा पहाड़ों की कृषिगत अर्थव्यवस्था को छोड़ने से कृषि में नए तकनीक और सुधार की सम्भावना शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो गई। पलायन का वो दौर 1970 का दशक ख़त्म होते होते तेज़ी से फैला और पहाड़ ख़ाली होने लगे और उसके साथ खली होने लगी पहाड़ों के खेत। 

आज स्थिति ये है कि पहाड़ों में ढूँढने से शायद कोई गाँव मिल पाएगा जो अपने लिए इतना अनाज, सब्ज़ी या फल की उपज कर रहा हो जिससे पूरे गाँव का पेट भर जाए, निर्यात तो दुर की बात है। पर एक समय था जब पहाड़ सिर्फ़ अनाज नहीं बल्कि फल और दुग्ध उत्पाद का भी निर्यात करता था।

Hunt The Haunted के WhatsApp Group से  जुड़ने  के  लिए  यहाँ  क्लिक  करें (लिंक)

Hunt The Haunted के Facebook पेज  से  जुड़ने  के  लिए  यहाँ  क्लिक  करें (लिंक)

Sweety Tindde
Sweety Tinddehttp://huntthehaunted.com
Sweety Tindde works with Azim Premji Foundation as a 'Resource Person' in Srinagar Garhwal.
RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Current Affairs