HomeEnvironment1893 की वो बारिश, बाढ़, बिरही और बचाव

1893 की वो बारिश, बाढ़, बिरही और बचाव

आज के दौर में आने वाली आपदाओं के विपरीत 1890 के दशक में बिरही नदी पर आए इस भयावह आपदा में किसी व्यक्ति का हताहत नहीं होना हमारी आधुनिकता और विकास पर कई सवाल खड़े करती है।

तीन दिनो तक बिरही नदी पर ये ख़ौफ़नाक मंज़र चलता रहा। निजमुल्ला घाटी से चमोली, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग, श्रीनगर होते हुए हरिद्वार तक घरें ख़ाली करवा दी गई। गढ़वाल के राजा का महल से लेकर, स्वास्थ्य केंद्र, मंदिर, पुल, बाज़ार, डाक बंगला, पुलिस स्टेशन, समेत पूरा श्रीनगर शहर तबाह हो गया। पर मौतें सिर्फ़ पाँच हुई और वो भी उस परिवार की जिसे दो बार घटना स्थल से हटाया गया लेकिन अपनी दैविए शक्ति का हवाला देकर वो बार बार झील के पास आ गए। इस क्षेत्र का कई दफ़ा यात्रा करने वाले फ़्रेंक स्माइथ का मानना है कि यह आपदा उनके स्मृति का सर्वाधिक प्रभावशाली आपदा था।

बिरही नदी पर गोहना/दुर्मी झील
चित्र 2: 1894 में गोहना/दुर्मी झील। सामने सफ़ेद पहाड़ी हरियादीप है जिसके ऊपर भूस्खलन आने के कारण बिरही नदी में वर्ष 1893 में इस झील का निर्माण हुआ था। झील के दूसरी तरफ़ दिख रहे खूछ घर दुर्मी गाँव है। (फ़ोटो साभार: जेम्स चैम्पीयन, southasia.com)

बिरही?

जिस जगह पर ये तबाही हुई थी उसे आज दुर्मी ताल कहते हैं जो चमोली ज़िले के निजमुल्ला घाटी के दुर्मी गाँव में स्थित है। निजमुल्ला घाटी में पाणा, ईरानी समेत चौदह गाँव है। कालांतर में इसे गोहना घाटी और झील को गोहना झील भी बोला जाता था। गोहना घाटी में बिरही नदी बहती है और उसके दक्षिण में नंदाकिनी घाटी के बीच से नंदाकिनी नदी बहती है। बिरही और नंदाकिनी नदी क्रमशः बिरही और नंदप्रयाग में आकर अलखनंदा नदी में मिल जाती है। प्रसिद्ध रमणी (रामणी) गाँव गोहना और नंदाकिनी नदी/घाटी में बीच में बसी हुई है।

बिरही क्यूँ?

डोलमायट पत्थरों से 45-50 डिग्री कोण का काटते गोहना घाटी के तीखे मैठाना पहाड़ के बीच से बहती बिरही नदी धीरे धीरे अपने बहाव से पहाड़ के तलहटी को काटती रही और बिरही नदी को संकरा करती रही। वर्ष 1868 में बिरही नदी में मामूली भूस्खलन आने से नदी का रास्ता बंद होने लगा और झील का निर्माण होने लगा था। अंततः 21 सितम्बर 1893 में हरियादीप पहाड़ के बड़े हिस्से और किचमोलि पहाड़ के एक छोटे हिस्से पर भूस्खलन आया जिसके बाद नदी का रास्ता पूरी तरह से बंद हो गया और प्राकृतिक गोहना झील का निर्माण हो गया।

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तीन दिनो तक चलने वाले इस भूस्खलन में लगभग 12,500,000 घन फ़ीट पत्थर और गाद नीचे आकर नदी का रास्ता पूरी तरह बंद कर चुकी थी। भूस्खलन में सफ़ेद डोलमायट पत्थर के धूल ने चमोली से लेकर कर्णप्रयाग तक को सफ़ेद धूल की चादर से ढक लिया था जैसे मानो पूरे क्षेत्र में बर्फ़बारी हुई हो। इस दौरान गोहना घाटी के उत्तरी तट के खिसकते पहाड़ के पत्थर उछलकर घाटी के दूसरे तरफ़ के पहाड़ से जाकर टकराते थे।

दिसम्बर 1893 तक झील 450 फ़िट गहरा और एक वर्ग मिल क्षेत्र में फैल गया। अगस्त 1894 तक यह झील क़रीब तीन मिल लम्बा, 600 मीटर चौड़ा और 300 मीटर गहरा होने के बाद 25 अगस्त 1894 को रात के तक़रीबन 11 बजकर 30 मिनट पर पानी झील के ऊपर से बहने लगा। (स्त्रोत: HG Walton, गढ़वाल गजेट, वॉल्यूम 12, 1910)

झील फटने की घटना का ज़िक्र करते हुए ‘The Man-Eating Tiger of Rudraprayag’ किताब के लेखक जिम कोर्बेट लिखते हैं, “झील टूटने के छः घटने के भीतर झील से तक़रीबन दस करोड़ घन मीटर पानी बह चुका था।”

बिरही के बाद

आपदा से जानमाल की क्षति रोकेने की यह प्रक्रिया वर्ष 1893 में ही शुरू हो गई थी जब स्थानिये पटवारी ने ज़िला प्रशासन को भूस्खलन की सूचना दिया जिसके बाद पहले ब्रिटिश आर्मी के इंजीनियर Lt Col, Pulford और उसके बाद में जीयलॉजिकल सर्वे ओफ़ इंडिया के खोजकर्ता T. H. Holland (2 मार्च 1894) को झील के फटने के सम्भावित समय का अनुमान लगाने के लिए सर्वे करने को भेजा गया। (स्त्रोत) झील के पास नया टेलीग्राफ़ मशीन लगाया गया और Lieutenant Crookshank को स्थाई रूप से झील के पास रहने का निर्देश दिया गया ताकि वो लगातार टेलीग्राफ़ के माध्यम से चमोली सूचना भेज सकें।

बिना फ़ोन और फ़ोर लेन वाली चौड़ी राष्ट्रीय राज्य मार्ग के उस दौर में भी प्रशासन ने बिरही से लेकर हरिद्वार तक तीन सौ किलोमीटर में बसे लोगों तक सम्भावित आपदा की सूचना पहुँचाई गई, लोगों के घर ख़ाली करवाए गए, उन्हें सुरक्षित स्थान पर ले ज़ाया गया। अलखनंदा नदी पर बने सभी पुल तोड़ दिए गए और 15 अगस्त के बाद हरिद्वार से ऊपर जाने वाले सभी मार्गों पर आवाजाही बंद कर दी गई।

बिरही नदी पर गोहना/दुर्मी झील
चित्र 3: गोहना/दुर्मी/बिरही झील से दिखता त्रिशूल और कुआरी पास जो इस झील को प्रसिद्ध पर्यटक स्थल के रूप में उभरने में सहायता किया। (वर्ष 1968, फ़ोटो साभार: H C Shah)

जब झील फटी तो पानी तक़रीबन 280 फ़िट की ऊँचाई और तीस मिल प्रति घंटे की रफ़्तार से चमोली की तरफ़ बढ़ी और नदी में तक़रीबन 50 फ़िट ऊँची पत्थर और मिट्टी की गाद लेकर आइ। रुद्रप्रयाग में नदी का जलस्तर स्तर 140 फ़िट बढ़ा, बीसघाट में 88 फ़िट और हरिद्वार में 12 फ़िट। इस घटना को पूरे विश्व के अख़बारों और पत्र-पत्रिकाओं में जगह दी गई।

गोहना फ़क़ीर, उनकी पत्नी और उनके तीन बच्चों के अलावा किसी की जान नहीं गई। एक दावे के अनुसार तो जैन सिर्फ़ गोहना फ़क़ीर की गई थी। ध्यान रखा जाय कि अगस्त चार-धाम का महीना हुआ करता था। आपदा ख़त्म होने के बाद झील मात्र 3,900 यार्ड लम्बी, 400 यार्ड चौड़ी व 300 फ़िट गहरी रह गई। तक़रीबन 30-35 वर्षों के बाद झील को सजाया संवारा गया, मछली पाली गई और एक सुंदर पर्यटन क्षेत्र के रूप में उभरी।(स्त्रोत: गढ़वाल गजेट, वॉल्यूम 12)

चित्र 4: वर्ष 1970 में दुर्मी/बिरही/गोहना झील के पूरी तरह नष्ट हो जाने के बाद का वो स्थान जहां कभी गोहना झील हुआ करता था। (चित्र साभार: PAHAR)

परंतु वर्ष 1970 में ये झील फिर से फटी और पूरा चमोली शहर को तबाह कर दिया। 1973 की इस आपदा के बाद चमोली ज़िले के हेड्क्वॉर्टर को गोपेश्वर शहर में स्थान्तरित किया गया। इस दौरान श्रीनगर में ITI और पोलिटिनिक भी डूब गया था। आज भी दुर्मी-ईरानी ग्राम के स्थानिये लोग इस झील के स्थान पर फिर से कृत्रिम डैम और झील निर्माण की माँग वर्षों से कर रहे हैं।

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Sweety Tindde
Sweety Tinddehttp://huntthehaunted.com
Sweety Tindde works with Azim Premji Foundation as a 'Resource Person' in Srinagar Garhwal.
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